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झारखंड में विलुप्त हो रहे हैं किसानों के पारंपरिक कृषि यंत्र, आधुनिक यंत्रों से बढ़ रहा है आपसी द्वेष

झारखंड में विलुप्त हो रहे हैं किसानों के पारंपरिक कृषि यंत्र, आधुनिक यंत्रों से बढ़ रहा है आपसी द्वेष

प्रशांत शर्मा/न्यूज़11 भारत

चतरा/डेस्क: सिमरिया प्रखंड क्षेत्र के तमाम इलाकों में किसानों ने युद्ध स्तर पर धान रोपाई किया है. प्रकृति ने भी इस वर्ष अब तक किसानों का बहुत ही बेहतरीन साथ निभाया है. किसानों द्वारा किए जा रहे खेती किसानी के कार्य में किसानों को पारंपरिक कृषि यंत्रों से दूर होते देखा जा रहा है. ऐसे में किसानों के बीच से पारंपरिक कृषि यंत्र विलुप्त होता जा रहा है. किसानों के बीच से कृषि यंत्रों के विलुप्त होने से किसानों को काफी परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है. अब किसान आधुनिक कृषि यंत्र के दीवाने हो चुके हैं. जिसका दुष्परिणाम किसानों को भुगतना पड़ रहा है.
 
आधुनिक यंत्र से खेतों की मनचाहा जुताई या सजाने संवारने में भी काफी परेशानियों का सामना करना पड़ता है. किसान जहां अपने खेतों को किसी प्रकार संवार कर बाहर निकलता है, कि दूसरे तरफ से किसानों के खेतों को चिरते बिखेरते एक छोर से दूसरे छोर चला जाता है. जिसे लेकर आए दिन किसानों व अरिया किसानों के बीच लड़ाई झगड़े व नोक झोंक होते रहता है. आइए अब हम चर्चा करते हैं पारंपरिक कृषि यंत्रों की, तो यह यंत्र किसानों के लिए बहुपयोगी यंत्रों में से एक था. जिससे किसानों को फायदे के बजाय नुकसान नहीं था. किसान अपने इच्छानुसार इन यंत्रों का उपयोग बहुत ही सहजता पूर्वक किया करते थे. पारंपरिक यंत्रों की सहायता से किसान छोटे से छोटे व बड़े से बड़े खेतों में काम कर लेते थे.
 
पारंपरिक यंत्रों के बारे में क्या कहते हैं किसान!
इन यंत्रों के बारे में मकुल राम चंद्रवंशी, देवकी साव, पाठों राम, जितेंद्र ठाकुर, मनोज साव ने बताया कि पारंपरिक यंत्रों में दो मालवाहक पशु (बैलों) का बहुत ही अहम भुमिका रहता था. जिसके मल से खेतों के लिए मुफ्त में उर्वर्क जैविक खाद्द प्राप्त होता था, जो किसानों के खेतों में लगे फसलों के लिए शक्तिशाली वरदान साबित हुआ करता था. इतना ही नहीं खेतों का जोत तैयार करने व खेतों से पैदावार बढ़ाने के लिए इन यंत्रों का तोड़ अबतक नहीं निकल सका है. आगे किसानों ने कहा कि फसल कटने के बाद खाली जमीनों में प्रायः घास फुस इत्यादि स्वभाविक रूप से उग आते हैं, जो फसलों को लगने नहीं देते हैं.
 
जिसे पारंपरिक यंत्रों के उपयोग से बेकार उगे घासफुस की जुताई तबतक किया जाता था, जबतक कि खेतों में उगे घासफुस सड़ गल कर जैविक खाद्द न बन जाए. उक्त जुताई से खेत की मिट्टी में एक नई जान आती थी, जो फसलों को सुरक्षित रखने व पैदावार बढ़ाने में बहुत ही कारगर साबित होता था. किसानों के साथ जुड़े पारंपरिक यंत्र कृषि कार्य का अहम हिस्सा होता था. जिस किसान के पास यह यंत्र नहीं होता, तो वह बगल वाले किसान से मदद के लिए मांगने पर निःशुल्क सहजता से उपलब्ध हो पाता था. वहीं आधुनिक कृषि यंत्र निःशुल्क की तो बात ही दूर है, पैसे लेकर ढूंढने से भी यह आवश्यकता अनुसार उपलब्ध नहीं हो पाता है. इन यंत्रों के विलुप्त होने से किसानों के साथ-साथ आमजन भी काफी प्रभावित हुए हैं, जो कृषि क्षेत्र के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है.
 

 

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