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हिंदी विरोध ने ठाकरे बंधुओं को लाया करीब. 'मराठी एकता' रैली में 20 वर्षों के बाद दिखे एक मंच पर

''हमें हिंदुस्तान स्वीकार्य हैं, लेकिन हिंदी नहीं''
हिंदी विरोध ने ठाकरे बंधुओं को लाया करीब. 'मराठी एकता' रैली में 20 वर्षों के बाद दिखे एक मंच पर
न्यूज 11 भारत




रांची/डेस्क: हिंदुत्व के बल पर महाराष्ट्र में राज करने वाली शिवसेना हिंदी के खिलाफ मोर्चा कर खोल कर राजनीति कर रही है. उद्धव ठाकरे वाली शिवसेना को अब उन सिद्धांतों से कोई मतलब नहीं है, जिसके बल पर उसका खौफ पाकिस्तान तक में हुआ करता है. अब तो उद्धव ठाकरे की शिवसेना सिर्फ राजनीति करने वाली पार्टी बन कर रहा गयी है. आलम तो यह है कि अब वह अपनी धुर विरोधी पार्टी कांग्रेस के साथ गलबहियां करके किसी तरह राजनीति में बनी रहना चाहती है.

 

परन्तु असल मुद्दा यह है कि 20 वर्षों शिवसेना से अलग होकर अपना अलग ठिकाना बनाने वाली मनसे एक बार फिर से अपनी पारिवारिक पार्टी के करीब आ गयी है. ऐसा भी हो सकता है कि दोनों पार्टियों का विलय भी हो जाये और अपना-अपना अस्तित्व बचाने की मुहिम में जुट जायें.अभी इन दोनों पार्टियों के प्रमुखों उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे का एक ही मकसद है मराठी आन्दोलन (हिंदी विरोध) को तेज करना. इसी मठारी आन्दोलन को लेकर ही 20 साल बाद दोनों ठाकरे एक मंच पर नजर आये. दोनों नेताओं ने 'मराठी एकता' के लिए 'विजय रैली' निकालकर महाराष्ट्र में भाषा विवाद हवा दे दी है.

 

दोनों नेताओं ने हिंदी विरोध को दी हवा

जैसा कि रैली का मकसद था कि मराठी को तरजीह और हिंदी का विरोध, तो दोनों नेता मराठी की तरफदारी से ज्यादा हिंदी के विरोध में ज्यादा बोले. दोनों नेताओं का एक ही कहना था, कोई हिंदी थोप नहीं सकता. हालांकि उन्होंने यह जरूर कहा कि हिंदी अच्छी भाषा है, स्कूली बच्चों के बहाने इसे थोपा नहीं जा  सकती. मगर एक छोटी बात उन्होंने जरूर कह दी कि देश में जो भी हिंदी वाले राज्य हैं, वे आर्थिक रूप से पिछड़े हुए हैं. लेकिन उद्धव ठाकरे ने कहा  कि हमने कभी हिंदूत्व नहीं छोड़ा, हमें हिंदुस्तान स्वीकार्य हैं, लेकिन हिंदी नहीं है. शायद यही कारण है कि उनकी इस रैली में न तो कांग्रेस शामिल हुई और न ही शरद पवार वाल एनसीपी. 

 

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