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सिमडेगा/डेस्क: कहने को तो हम 21 वीं सदी में हैं सरकार चांद और मंगल से आगे विकास पहुंचाने के दावे करती है. लेकिन विकास के सभी दावे सिमडेगा के केराबेड़ा जैसे अंतिम पायदान पर खड़ी गांवों तक आने से पहले दम तोड़ती नजर आती है.
वो दर्द वो बदहाली के मंजर नहीं बदले, बस्ती के अंधेरे से घर नहीं बदले. हमने तो बहारों का महज जिक्र सुना है, मगर अब तक सिमडेगा के कई क्षेत्र से पतझड़ नहीं बदले. आज कुछ यही हालात सिमडेगा के केराबेड़ा गांव की है. सिमडेगा जिला के कोलेबिरा प्रखंड अंतर्गत डोमटोली पंचायत का केराबेड़ा गांव आज भी विकास से कोसों दूर है. यह गांव बरसात के दिनों में टापू बन जाता है, जहां पहुंचने का एकमात्र साधन एक अस्थायी लकड़ी का पुल है. तेज बहाव के दौरान यही पुल खतरा बन जाता है. ग्रामीण उसी पर जान जोखिम में डालकर पार करते हैं. बरसात के दौरान स्कूली बच्चे पढ़ाई से वंचित हो जाते हैं और बुजुर्गों को चलना तक मुश्किल हो जाता है. किसी आपातकालीन स्थिति में मरीजों को खटिया पर ढोकर अस्पताल पहुंचना पड़ता है. क्योंकि गांव तक चारपहिया वाहन नहीं पहुंच पाते. कई बार ग्रामीणों ने खुद को जनप्रतिनिधि कहलाने वाले रहनुमाओं को अपनी तकलीफ बताई. लेकिन ना तो कभी साहब आए ना हीं उन्होंने ग्रामीणों की तकलीफों को गंभीरता से लिया. ग्रामीणों का कहना है कि दशकों से पुल निर्माण की मांग की जा रही है. आवेदन भी दिए गए, लेकिन हर बार आश्वासन के अलावा कुछ नहीं मिला. इस नाले को पार करते समय गांव की एक महिला की जान भी जा चुकी है. गांव के निवासी निकोडिम लुगुन ने बेबसी जाहिर करते हुए कहा, हमारे पूर्वज यहां कई पीढ़ियों से रह रहे हैं, लेकिन आज तक न सरकार ने हमारी समस्या दूर की न ही किसी ने हमारी तकलीफ सुनी . ऐसा लगता है जैसे हम इस देश के नागरिक ही नहीं .
गांव की सबसे बुजुर्ग ग्रामीण बसंत मुंडा कहते हैं, मैंने बचपन से लेकर बुढ़ापे तक इंतज़ार किया कि इस नाले पर पुल बने, लेकिन उनकी आंखें पथरा गई और अब तक सिर्फ झूठे वादे मिले. नेता चुनाव के समय आते हैं, वादे करते हैं, फिर भूल जाते हैं.
गांव के लोग जान जोखिम में डाल कर गांव तक आते हैं. गांव के पावेल लुगुन ने बताया कि स्कूटी से नाले को पार करना हर बार जान जोखिम में डालने जैसा है.
कई बार हो चुके हैं हादसे
गांव और ग्रामीणों का दर्द सिर्फ पुल तक हीं सीमित नहीं है. गांव में आज बिजली और पेयजल की भी स्थिति दयनीय है. आज तक इस गांव में बिजली का खंभा तक नहीं पहुंचा. ग्रामीण सूरज ढलते ही अंधेरे में डूब जाते हैं. एक साल पहले तक नाले का गंदा पानी पीकर लोग जीवन गुजारते थे. अब ‘हर घर नल जल योजना’ के तहत कभी-कभी पानी मिलता है, लेकिन जब नल सूखते हैं, तो फिर वही नाला ही सहारा बनता है.
ग्रामीणों का आरोप है कि पंचायत चुनाव के समय मुखिया और वार्ड सदस्य भी आते हैं, वादे करते हैं, लेकिन चुनाव जीतने के बाद गांव की तरफ मुड़कर नहीं देखते.क्या भारत का कोई गांव 2025 में भी ऐसा हो सकता है जहाँ पुल, बिजली, एक सपना जैसा हो? पूर्व में जब एक महिला की जान चली गई, तब भी प्रशासन क्यों नहीं जागा? जनता के करोड़ों वोट लेकर कुर्सियों पर बैठने वाले नेताओं को कब इस गांव का सुध आएगा? यह सिर्फ केराबेड़ा की कहानी नहीं, बल्कि उस पूरी व्यवस्था की तस्वीर है जो गांवों को अब भी विकास की बुनियादी ज़रूरतों के लिए तरसा रही है. यह खबर सरकार और सिस्टम पर करारा तमाचा है. क्योंकि आजादी के 78 साल बाद भी एक गांव टापू बना हुआ है, अंधेरे में डूबा हुआ है, और विकास की आस में आज भी लकड़ी के पुल से लटक रहा है. क्या सच में भारत गांवों का देश है, या फिर सिर्फ वोटों का बाजार?