प्रशांत शर्मा/न्यूज11 भारत
चतरा/डेस्क: सोशल मीडिया और आधुनिकता की बदलती दुनिया में पुरानी परंपराएं विलुप्त होती जा रही हैं. यहीं हाल रहा तो आने वाले समय में सावन में झूले डालने व उन्हें झूलने की परंपरा भी समाप्त हो जाएगी. एक समय था जब झूला झूलना सिर्फ रिवाज नहीं माना जाता था, बल्कि इसे भारतीय संस्कृति की प्राचीन परंपरा भी कहा गया. वर्षा ऋतु में सावन की महिमा धार्मिक अनुष्ठान की दृष्टि से तो बढ़ ही जाती है. प्रकृति के संग जीने की परंपरा थमती जा रही है. झूला झुलने का भी दौर भी अब समाप्त हो गया है.
झूलों और मेंहदी के बिना नहीं की जाती थी सावन की परिकल्पना
आधुनिकता की दौड़ में प्रकृति के संग झूला झूलने की बात अब कहीं नहीं दिखती है. ग्रामीण क्षेत्र की युवतियां भी सावन के झूलों का आनंद नहीं उठा पाती है. आज से तीन-चार दशक पहले तक झूलों और मेंहदी के बिना सावन की परिकल्पना भी नही होती थी. आज के समय में सावन के झूले नजर ही नहीं आते हैं. लोग अब घर की छत पर या आंगन में ही रेडीमेड आयरन और स्टील फ्रेम वाले झूले पर झूलकर मन को संतुष्ट कर रहे हैं. बुद्धिजीवी वर्ग सावन के झूलों के लुप्त होने की प्रमुख वजह सुख सुविधा और मनोरंजन के साधनों में वृद्धि को मान रहे हैं.
संस्कृति और पौराणिक परंपरा की देन है, झुला झूलना
संस्कृति एवं परंपरा की ही देन है, कि देश के विभिन्न क्षेत्रों के गांव और कस्बों में लोग सावन महीना में झूला झूलते हैं. विशेष कर महिलाएं और युवतियां इसकी शौकीन होती हैं. भारतीय हिंदी महीने की हर माह की अपनी खुशबू है. सावन व भादो का महीना प्रकृति के और निकट ले जाता है.
मन को सुकून देते थे, झूला झूलने के दौरान गाया जाने वाला कजरी और मल्हार लोकगीत
वर्तमान समय में अब झूले की परंपरा लुप्त हो रही है. सावन भादों की खुशबू अब नहीं दिखती है. एक दो स्थानों को छोड़ कर लोग इसका आनंद नहीं ले पा रहे हैं. इन झूलों के नहीं होने से लोकसंगीत कजरी, मल्हार, आल्हा और रुदल भी सुनने को नहीं मिलता है. सावन के आते ही गली-कूचों और बगीचों में पपीहा और कोयल की मधुर बोली के बीच युवतियां झूले का लुत्फ उठाया करती थीं. अब न तो पहले जैसे बगीचे रहे और न ही पपीहा और कोयल की आवाज सुनाई देती है. यानी बिन झूला झूले ही सावन गुजर जाता है.
सावन आते ही ससुराल से मायके बुला ली जाती थी बहन-बेटियां
एक बुजुर्ग महिलाएं बताती हैं कि सावन के नजदीक आते ही बहन-बेटियां ससुराल से मायके बुला ली जाती थीं और पेड़ों पर झूला डाल कर झूलती थी. झुंड के रूप में इकट्ठा होकर महिलाएं दर्जनों सावनी गीत गाया करती थीं. वह बताती हैं कि त्योहार में बेटियों को ससुराल से बुलाने की परंपरा आज भी चली आ रही है, लेकिन जगह के अभाव में न तो कोई झूला झूल पाता है और न ही अब पपीहा व कोयल की सुरीली आवाज ही सुनने को मिलती हैं.
कुल मिला कर बाग-बगीचों के खात्मे के साथ जहां पशु पक्षियों की संख्या घटी है, वहीं समाज में बढ़ रही गैर समझदारी के कारण भाईचारे में बेहद कमी आई है. नतीजतन, झूला झूलने की परंपरा को ग्रहण लग गया है.
शहरों में आधुनिकता की चकाचौंध ने झुला झूलने की परंपरा किया समाप्त
शहरों में जगह की कमी ने परंपरा के निर्वाह में बाधा खड़ी कर दी है. अब झूले लगाने के लिए जगह की तलाश करनी पड़ती है. पहले संयुक्त परिवार में बड़े.बूढ़ों के सानिध्य में लोग एक दूसरे के घरों से जुड़ते थे. जबकि एकल परिवार ने इस आपसी स्नेह को खत्म कर दिया है. महिलाएं कम्यूनिटी सेंटर में तीज पर्व मनाती हैं. सांस्कृतिक कार्यक्रमों के माध्यम से सभी एक दूसरे के साथ खुशियां बांटती हैं. सावन के झूले कहां हैं, अब तो लोग महंगाई के झूले झूल रहे हैं. भौतिकवाद ने एक-दूसरे के प्रति लगाव भी खत्म कर दिया है. लॉन में लोहे व बांस के झूले लगा लिए और हो गया परंपरा का निर्वाह. अब तो पहनावा भी आधुनिकीकरण की भेंट चढ़ गया है. अब तो लोग तीज के दिन मॉल में जाते हैं, फिल्म देखते हैं, खाना खाते हैं और इस तरह मना लेते हैं, सावन का पूरा त्योहार.