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रांची/डेस्क: झारखंड में आदिवासियों के मसीहा और झारखंड अलग राज्य के प्रणेता शिबू सोरेन के निधन पर विश्व आदिवासी दिवस पर सन्नाटा पसरा हुआ है. वरना इस समय पूरे राज्य में आदिवासी महोत्सव की धूम मची होती. मगर विश्व आदिवासी दिवस सिर्फ झारखंड के लिए ही एक उत्सव नहीं है, यह पूरे विश्व के आदिवासियों-मूलवासियों के संरक्षण और अधिकारों की रक्षा की वकालत करने का एक महत्वपूर्ण दिवस है.
अंतरराष्ट्रीय दिवस यह भारत में स्वीकार किया गया एक शब्द है. वस्तुतः प्रत्येक वर्ष 9 अगस्त को दुनिया भर में जो दिवस मनाया जाता है, उसे world indigenous day (स्वदेशी-मूलवासी दिवस) कहते हैं. यानी इसका सम्बंध स्थानीयता से है. इसे जिस भी नाम से पुकारा जाये, इसकी मूल भावना एक ही है दुनिया भर के मूलवासियों के अधिकारों के प्रति जागरूकता बढ़ाना और उनके अधिकारों की रक्षा करना.
इसकी विस्तार से अलग से व्याख्या नहीं करते हुए इसकी मूल भावना को ध्यान में रखना ज्यादा महत्वपूर्ण है. विश्वभर के आदिवासी जंगलों में रहते हैं, इनके जंगलों में रहने के कारण पर्यावरण का संरक्षण खुद-ब-खुद हो जाता है. इसमें आदिवासियों के योगदान को नकारा नहीं जा सकता. फिर आदिवासियों की संस्कृति, परम्पराएं और धार्मिक अनुष्ठान सब प्रकृति के ही इर्द-गिर्द घूमते हैं. इन बातों को ध्यान में रखते हुए और विश्व भर के आदिवासियों की समस्याओं पर ध्यान देने के लिए संयुक्त राष्ट्र महासभा ने दिसंबर 1994 में world indigenous day, जिसे हम विश्व आदिवासी दिवस भी कह सकता हैं, घोषित किया. हालांकि इससे पहले संयुक्त राष्ट्र महासभा में इस पर लम्बी चर्चा चली तब जाकर विश्व आदिवासी दिवस अस्तित्व में आ सका. विश्व भर में मानवाधिकारों की रक्षा करने वाली संस्था ने 1982 में इस ओर संयुक्त राष्ट्र महासभा का ध्यान दिया. उसके बाद एक लम्बी चर्चा-परिचर्चा का दौर चला, फिर 1993 में आदिवासी दिवस मनाने पर सहमति बन पायी. इसके बाद 1994 में world indigenous day कहें या आदिवासी दिवस, अस्तित्व में आ गया.
विश्व आदिवासी दिवस मनाने की वजह
- संयुक्त राष्ट्र महासभा ने यह महसूस किया कि दुनिया भर के आदिवासियों के समक्ष गरीबी, स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा जैसी समस्याओं के साथ भेदभाव की एक गहरी लकीर खिंची हुई है, जिसे खत्म करना आवश्यक है.
- विश्व भर के मूल निवासी अपनी समृद्ध संस्कृतियों और परम्पराओं के जरिये पर्यावरण संरक्षण में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं. इसलिए इनका संरक्षण करके पर्यावरण का संरक्षण आसानी से किया जा सकता है.
- आदिवासी विभिन्न संस्कृतियों के साथ अपना जीवन-यापन करते हैं. इनका संरक्षण भी बेहद आवश्यक है.
- ऐसे आयोजनों के द्वारा अपने क्षेत्र के साथ-साथ दूसरे क्षेत्रों की जनजातियों की परम्पराओं से लोग अवगत हो पाते हैं.
भारत में कहां-कहां हैं जनजातीय समुदाय
विश्व भर में भले ही world indigenous day मनाया जाता है, लेकिन भारत में इसे आदिवासी दिवस के रूप में स्वीकार किया गया है. इसके पीछे वजह यह है कि भारत के अधिकांश राज्यों में मूलवासियों के रूप में आदिवासी निवास करते हैं. दूसरे देशों से अलग इनकी परम्पराओं और संस्कृतियों में भारतीयता की झलक मिलती है. जिस प्रकार प्राचीन भारतीय परम्परा प्रकृति के करीब रही हैं, उसी प्रकार जंगलों में रहने वाले आदिवासी प्रकृति को ही अपना सर्वस्व मानते हैं.
भारत में मध्य प्रदेश, झारखंड, छत्तीसगढ़, बिहार, छत्तीसगढ़, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश और उत्तर प्रदेश में मुख्य रूप से आदिवासी समुदाय निवास करते हैं. इसके अलावा देश के दूसरे राज्यों में भी जनजातीय समुदाय के लोग निवास करते हैं. जहां तक संख्या की बात है तो मध्य प्रदेश में 46 आदिवासी समुदाय निवास करते हैं. मध्य प्रदेश में आदिवासियों की संख्या कुल जनसंख्या का 21% हिस्सा है। झारखंड में 28% आबादी आदिवासी समुदायों की है.
जहां तक जातियों कि बात करें तो मध्य प्रदेश में गोंड, भील, उरांव, कोरकू, सहरिया और बैगा जनजाति हैं. जैसी जनजातियों की अच्छी-खासी संख्या है। इसके अलावा संथाल, बंजारा, बिहोर, चेरो, हो, खोंड, लोहरा, माई पहाड़िया, मुंडा और उरांव जनजातियां देश के अलग-अलग हिस्सों में फैली हुई हैं.