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रांची/डेस्क: उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले में एक गांव ऐसा भी है, जिसकी पहचान रहस्यों, विवादों और समाज के सबसे छिपे पहलुओं से जुड़ी हुई हैं. हम बात कर रहे है भदौरा ब्लॉक के पास बसे बसुका गांव की, जिसे लेकर सोशल मीडिया पर ऐसे-ऐसे दावे किए जाते है कि लोग चौंक जाते हैं. दावा किया जाता है कि यहां महिलाएं बिना पुरुषों के बच्चों को जन्म देती है, इसलिए लोग यहां रिश्ते करने से भी कतराते हैं. हालांकि असल सच्चाई इससे कहीं ज्यादा जटिल और दर्दनाक हैं. गांव के बाहरी हिस्से में एक बस्ती है, जहां आज भी तवायफों की मौजूदगी हैं. यह बस्ती कभी मुजरे की कला के लिए जानी जाती थी, लेकिन वक्त के साथ यह कला समाज से बहिष्कृत होती गई और इसी के साथ यहां की महिलाएं वेश्यावृत्ति के धंधे में धकेल दी गई.
बसुका गांव की पहचान एक अभिशाप बन चुकी हैं. 300 साल पुरानी एक सांस्कृतिक परंपरा मुजरा आज इस गांव के लिए कलंक बन चुकी हैं. यहां रहने वाली कुछ महिलाएं कैमरे के सामने आई और स्वीकार किया कि गांव में जिस्मफरोशी होती हैं. वहीं कुछ महिलाओं का कहना है कि वे सिर्फ ठुमरी, सोहर और पारंपरिक गीतों से लोगों का मनोरंजन करती हैं.
गांव में करीब 6500 वोटर हैं, जिसमें अगड़ी जातियों के साथ मुस्लिम समुदाय की संख्या भी अच्छी खासी हैं. लेकिन एक कड़वी सच्चाई यह भी है कि ऑर्केस्ट्रा और नाचने का काम करने वाली अधिकतर लड़कियां गरीब मुस्लिम परिवारों से आती है, जिनके पास जमीन-जायदाद नहीं हैं. कुछ साल पहले इस गांव की तवायफों ने वेश्यावृत्ति के खिलाफ आवाज उठाई थी. उन्होंने कैमरे के सामने अपने दर्द और मजबूरी की कहानी बयां की थी. एक महिला तबस्सुम ने बताया कि उसे महज 13 साल की उम्र में इस धंधे में उतार दिया गया था. छोटी बच्चियों को दवाएं देकर जवान बना दिया जाता है ताकि उन्हें जल्द से जल्द ‘काबिल’ बनाया जा सके.
तबस्सुम का कहना है कि उसकी एक नाजायज संतान है, जिसके स्कूल फॉर्म में पिता की जगह उसे भाई का नाम भरना पड़ा. ये अनुभव उसके लिए झकझोर देने वाला था. हालांकि अब वह इस काम को छोड़ चुकी है और उसका पति मुंबई में ऑटो चलाता हैं. उसने बताया कि अब वह 29 लाख का फ्लैट बनारस में खरीद चुकी है और गांव में भी मकान बनवा रही हैं. लेकिन बसुका की कहानी यहीं खत्म नहीं होती. कुछ महिलाएं अरब देशों तक भी भेजी गई है, जहां से लौटने के बाद उन्होंने गांव में पक्के घर और आलीशान जिंदगी शुरू की हैं. वहीं, कुछ महिलाएं आज भी दो वक्त की रोटी के लिए संघर्ष कर रही हैं.
गांव के कोठों पर तबला बजाने वाले मोहम्मद शाहिद का कहना है कि उनका परिवार पारंपरिक संगीत से जुड़ा हैं. वो वेश्यावृत्ति के आरोपों को नकारते हुए कहते है कि जो महिलाएं ठुमरी गाती हैं, वो अश्लीलता में शामिल नहीं हो सकती. गुड़िया नाम की एक तवायफ का कहना है कि तवायफ और वेश्या में फर्क होता हैं. वो कहती है कि तवायफ किसी का घर नहीं तोड़ती, बल्कि कला से मनोरंजन करती हैं. गांव में हुए विवाद के पीछे वो सरपंच के इरादों को जिम्मेदार मानती है, जिनका खुद का परिवार भी इसी पेशे से जुड़ा रहा हैं. हालांकि बढ़ते विवाद के बीच प्रशासन को हस्तक्षेप करना पड़ा और पुलिस ने स्पष्ट किया कि जब तक कोई गैरकानूनी गतिविधि नहीं हो रही, तब तक तवायफों को उनके काम से रोका नहीं जाएगा.
बसुका की कहानी सिर्फ एक गांव की नहीं, बल्कि उस कला, संस्कृति और समाज की है जो कभी सम्मानित हुआ करता था लेकिन वक्त के साथ उपेक्षित होकर बदनामियों के गर्त में चला गया. सवाल ये नहीं कि यहां बिना मर्दों के बच्चे पैदा होते हैं या नहीं, सवाल ये है कि समाज की अनदेखी ने इन औरतों को किस मोड़ पर ला खड़ा किया हैं.