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पूर्वजों को श्रद्धांजलि और दुर्गा पूजा की शुरुआत, महान धार्मिक पर्व महालया से होगा शुभारंभ, जानें इस पर्व की पूरी विधि

पूर्वजों को श्रद्धांजलि और दुर्गा पूजा की शुरुआत, महान धार्मिक पर्व महालया से होगा शुभारंभ, जानें इस पर्व की पूरी विधि

न्यूज़11 भारत


रांची/डेस्क: भारत में धार्मिक उत्सवों का अपना एक खास महत्व होता है, जो सदियों से चली आ रही परंपराओं, रीति-रिवाजों और मान्यताओं से जुड़ा होता हैं. ऐसा ही एक महत्वपूर्ण और पवित्र दिन है महालया, जिसे सर्व पितृ अमावस्या के नाम से भी जाना जाता हैं. यह पितृ पक्ष का अंतिम दिन है, जो इस वर्ष 2 अक्टूबर को मनाया जा रहा हैं. महालया न केवल पूर्वजों को सम्मान देने का अवसर है बल्कि यह दुर्गा पूजा उत्सव की शुरुआत का भी प्रतीक हैं.

 

इस दिन हिंदू धर्म के अनुयायी अपने पूर्वजों की आत्माओं को तर्पण या श्राद्ध के माध्यम से संतुष्ट करते हैं. महालया एक प्रकार से भक्तों को यह याद दिलाता है कि चाहे दुनिया कितनी भी बदल जाए, पूर्वजों का आशीर्वाद और देवी दुर्गा का आगमन हर साल अपने साथ एक नई शुरुआत लेकर आता हैं.

 

महालया का अर्थ और महत्व

महालया शब्द संस्कृत से लिया गया है, जिसमें 'महा' का अर्थ 'महान' और 'आलया' का अर्थ 'निवास' होता हैं. इसे देवी का महान निवास भी कहा जाता है क्योंकि इस दिन यह माना जाता है कि देवी दुर्गा शिवलोक से धरती पर आती हैं. इसके साथ ही यह पितृ पक्ष का अंत और देवी दुर्गा के आगमन की शुरुआत का प्रतीक हैं.

 

महालया के दिन बंगाल में मां दुर्गा की मूर्ति की आंखों का निर्माण किया जाता है, जिसे 'चक्षु दान' कहा जाता हैं. इसके साथ ही महालया के दिन को दुर्गा पूजा की आधिकारिक शुरुआत के रूप में भी देखा जाता हैं. इस दिन देवी दुर्गा की मूर्ति को अंतिम रूप दिया जाता है और मां दुर्गा के आगमन की तैयारी शुरू हो जाती हैं. 

 

महालया का दिन पूर्वजों के लिए विशेष महत्व रखता हैं. इस दिन हिंदू धर्म में तर्पण या श्राद्ध कर्म किए जाते है ताकि पूर्वजों की आत्माओं को शांति प्राप्त हो सके. यह दिन उन लोगों के लिए भी खास होता है जो अपने पितरों के प्रति श्रद्धा और सम्मान व्यक्त करना चाहते हैं.

 

पौराणिक मान्यताएँ और देवी दुर्गा का आगमन

महालया के दिन के साथ कई पौराणिक मान्यताएँ जुड़ी हुई हैं. एक प्रमुख मान्यता के अनुसार, इस दिन मां दुर्गा कैलाश पर्वत से अपने मायके धरती पर आती हैं. मां दुर्गा अपने बच्चों– गणेश, कार्तिकेय, लक्ष्मी और सरस्वती के साथ यात्रा करती हैं और धरती पर आने के लिए विभिन्न वाहनों का उपयोग करती हैं. उनके वाहन जैसे हाथी, घोड़ा, नाव या पालकी को शुभ या अशुभ संकेतों के रूप में देखा जाता हैं. 

 

इस वर्ष महालया के दिन देवी दुर्गा हाथी पर सवार होकर आ रही हैं, जो समृद्धि और सुख-शांति का प्रतीक हैं. यह देवी के आगमन का शुभ संकेत है, जिससे यह उम्मीद की जा रही है कि इस वर्ष की दुर्गा पूजा मानवता के लिए खुशहाली लेकर आएगी. 

 

महालया और 'महिषासुरमर्दिनी' का पाठन

महालया का दिन 'महिषासुरमर्दिनी' के पठन के बिना अधूरा माना जाता हैं. 'महिषासुरमर्दिनी' एक भक्तिपूर्ण पाठ है, जो देवी दुर्गा की शक्ति और राक्षस महिषासुर पर उनकी विजय का वर्णन करता हैं. यह पाठ अच्छाई की बुराई पर विजय का प्रतीक है, जो दुर्गा पूजा की आध्यात्मिकता और उत्सव को और भी गहरा बनाता हैं. 

 

इस पाठ का सबसे प्रसिद्ध संस्करण बीरेंद्र कृष्ण भद्र द्वारा प्रस्तुत किया गया है, जो हर साल महालया के दिन सुबह-सुबह आकाशवाणी पर प्रसारित होता हैं. बंगाल में यह एक परंपरा बन चुकी है कि लोग महालया की सुबह इस पाठ को सुनकर अपने दिन की शुरुआत करते हैं. यह प्रसारण न केवल बंगाली संस्कृति का हिस्सा है बल्कि यह दुर्गा पूजा के आगमन की भी सूचना देता हैं. 

 

'महिषासुरमर्दिनी' का अर्थ है 'महिषासुर का संहार करने वाली देवी'. यह पाठ देवी दुर्गा की अद्वितीय शक्ति और उनके अदम्य साहस को दर्शाता हैं. इस पाठ में देवी दुर्गा के महाकाव्य संघर्ष और महिषासुर के खिलाफ उनकी विजय का वर्णन किया गया हैं. महालया पर इस पाठ को सुनना भक्तों के लिए आध्यात्मिक अनुभव होता है, जो उन्हें देवी के प्रति अपनी आस्था और विश्वास को और मजबूत करने का अवसर प्रदान करता हैं. 

 

श्राद्ध और तर्पण का महत्व

महालया के दिन पितृ पक्ष का समापन होता हैं. पितृ पक्ष हिंदू धर्म में एक विशेष अवधि है, जब लोग अपने पूर्वजों को याद करते है और उनके प्रति सम्मान व्यक्त करते हैं. इस अवधि के दौरान, श्राद्ध और तर्पण कर्म किए जाते है ताकि पितरों की आत्मा को शांति मिल सके. 

श्राद्ध और तर्पण कर्म का मुख्य उद्देश्य पूर्वजों की आत्मा को परलोक में संतुष्ट करना होता हैं. महालया के दिन श्राद्ध कर्म को विशेष महत्व दिया जाता है क्योंकि यह दिन पितृ पक्ष के अंत का प्रतीक हैं. इस दिन लोग गंगा या किसी पवित्र नदी के किनारे तर्पण करते है और अपने पूर्वजों को जल अर्पित करते हैं. 

 

बंगाल में महालया की परम्पराएं

बंगाल में महालया का विशेष महत्व है क्योंकि यह दुर्गा पूजा की शुरुआत का संकेत देता हैं. महालया के दिन से ही दुर्गा पूजा की तैयारियां शुरू हो जाती हैं. बंगाल के हर कोने में इस दिन की रौनक दिखाई देती हैं.

 

बंगाल में महालया के दिन 'महिषासुरमर्दिनी' पाठ को सुनने की परंपरा कई दशकों से चली आ रही हैं. यह पाठ देवी दुर्गा की विजय का जश्न मनाने और उनके आगमन का स्वागत करने के लिए गाया जाता हैं. इसके साथ ही इस दिन देवी दुर्गा की मूर्ति की आंखों को तैयार करने की परंपरा भी है, जिसे 'चक्षु दान' कहा जाता हैं. 

 

बंगाल में महालया के दिन देवी दुर्गा की मूर्तियों को अंतिम रूप दिया जाता है और दुर्गा पूजा की भव्यता का माहौल बनने लगता हैं. इस दिन बंगाली समाज में एक खास तरह की ऊर्जा और उत्साह देखा जाता है, जो दुर्गा पूजा की तैयारियों का संकेत देता हैं. 

 

महालया और दुर्गा पूजा का आरंभ

महालया के दिन से दुर्गा पूजा उत्सव की शुरुआत हो जाती हैं. इस दिन देवी दुर्गा के स्वागत के साथ-साथ पूर्वजों को भी विदाई दी जाती हैं. महालया के दिन की आध्यात्मिकता और पवित्रता दुर्गा पूजा की भव्यता और उसके महत्व को और बढ़ाती हैं. 

 

महालया के दिन देवी दुर्गा का धरती पर आगमन एक प्रकार से यह संदेश देता है कि अच्छाई हमेशा बुराई पर विजय प्राप्त करती हैं. देवी दुर्गा की शक्ति और साहस का प्रतीक यह पर्व हर साल दुनिया भर में लाखों भक्तों के दिलों में एक खास जगह रखता हैं.

 

महालया की ध्वनि और उसकी गूंज

महालया की ध्वनि हर भक्त के कानों में गूंजती रहती है, चाहे वह कहीं भी हो. 'महिषासुरमर्दिनी' के पठन और देवी दुर्गा के गीतों की गूंज हर बंगाली के दिल में एक खास जगह रखती हैं. यह दिन न केवल धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व रखता है बल्कि यह एक भावनात्मक जुड़ाव भी होता है, जो लोगों को उनकी जड़ों से जोड़े रखता हैं.

 

महालया का दिन हिंदू धर्म के अनुयायियों के लिए धार्मिक और आध्यात्मिक रूप से अत्यधिक महत्वपूर्ण होता हैं. इस दिन पूर्वजों को तर्पण और श्राद्ध के माध्यम से सम्मानित किया जाता है और देवी दुर्गा का स्वागत किया जाता हैं. महालया के साथ दुर्गा पूजा उत्सव की शुरुआत होती है, जो अगले कुछ दिनों तक पूरे देश में धूमधाम से मनाई जाती हैं.

 

महालया का दिन हमें यह याद दिलाता है कि समय चाहे जितना भी बदल जाए, हमारी परंपराएँ और धार्मिक विश्वास हमें हमेशा एक-दूसरे से जोड़े रखते हैं. यह दिन पितरों के प्रति सम्मान और देवी दुर्गा की शक्ति का प्रतीक है, जो हर साल हमारे जीवन में नई ऊर्जा और नई उम्मीदें लेकर आता हैं.

 


 

 

 
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