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रांची/डेस्कः आज ( 30 जून) हूल दिवस है, आज संताल परगना के संताल समाज और पूरे झारखंड के लिए एक खास दिवस है. यह दिन अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ 1855-56 में सिदो-कान्हू के नेतृत्व में जल, जंगल, जमीन और आदिवासी अस्मिता के सवाल पर संतालों के विद्रोह या हूल दिवस के रूप में जाना जाता है, जिसकी नींव तिलका मांझी ने 1771 में डाली थी. बता दें कि आज हूल दिवस है जिसे सिदो कान्हू ने संताल आंदोलन का रुप दिया था. इस विद्रोह में सिदो-कान्हू दो वीर भाईयों ने ब्रिटिश सत्ता, साहुकारों, व्यापारियों और जमींदारों के अत्याचारों के खिलाफ संताल विद्रोह(आंदोलन) की शुरुआत की थी.
हूल का मतलब
हूल संताली भाषा का शब्द है जिसका मतलब होता है 'विद्रोह'. यह दिन आजादी की लड़ाई में अंग्रेजों के खिलाफ जम के लड़ने वाले आदिवासियों की संघर्ष गाथा और उनके बलिदान को याद करने का खास दिन है. झारखंड के साहिबगंज जिला अंतर्गत बरहेट प्रखंड के भोगनाडीह गांव के रहने वाले चार संताल आदिवासी भाइयों सिद्धो, कान्हू, चांद और भैरव ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सरकार के खिलाफ विद्रोह किया था. चारों भाइयों ने इस जंग में अपनी शहादत दी थी. वहीं आज के दिन सिदो कान्हू के गांव भोगनाडीह में सरकार की ओर से विकास मेला का आयोजन किया जाता है. और दोनों शहीद वीर भाई सिदो-कान्हू को याद किया जाता है.
30 जून को क्या हुआ
30 जून, यह वही दिन था जब 50 हजार से अधिक संथालों ने सिद्धो को अपना राजा चुना. सभा में कान्हू को मंत्री चुना गया. चांद प्रशासक बने और भैरव सेनापति चुने गये. उन दिनों एक नारा बुलंद किया गया, ‘अंग्रेजों हमारी माटी छोड़ो.’ संथालों की मूल लड़ाई महाजनों के खिलाफ थी. लेकिन अंग्रेजों के करीब होने के कारण संथालों ने दोनों के खिलाफ विद्रोह कर दिया था. गुस्सा अंग्रेजों के साथ था लेकिन उनका साथ देने वाले महाजनों के प्रति भी उतना ही था, जो संथालों का शोषण करते थे.
वहीं, आज के दिन (30 जून) को नई क्रांति की शुरूआत हुई थी. हजारों लोग एक सूत्र में बंधे थे और अंग्रेजों को भगाने की योजना बनी थी. इसलिए पूरे देश में 30 जून को हूल दिवस मनाया जाता है. इस दिन आदिवासियों की शौर्य गाथा और बलिदान को याद किया जाता है जिन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी. कह लें तो हम उन 50 हजार अदम्य साहस की प्रतिमूर्ति रहे हूल वीरों को याद करते हैं जिन्होंने भूखे-नंगे रह कर केवल परंपरागत हथियारों से अंग्रेज और उनकी सेना को धूल चटा दी थी.
1855 में हुई थी पहली आजादी की लड़ाई
आजादी की पहली लड़ाई सन् 1857 में मानी जाती है, लेकिन झारखंड के आदिवासियों ने 1855 में ही अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का झंडा बुलंद कर दिया था. 30 जून, 1855 को सिद्धू और कान्हू के नेतृत्व में मौजूदा साहिबगंज जिले के भगनाडीह गांव से विद्रोह शुरू हुआ था. आपको बता दें, सन् 1855 में शुरू हुई इस जंग को संताल हूल कहा जाता है. प्रतिवर्ष, उस क्रांति की याद में 30 जून को हूल दिवस मनाया जाता है. आज ही के दिन 1855 में झारखंड के आदिवासियों ने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह किया और 400 गांवों के 50,000 से अधिक लोगों ने भोलनाडीह गांव पहुंचकर जंग का ऐलान कर दिया. यहां आदिवासी भाई सिद्धू-कान्हू की अगुवाई में संथालों ने मालगुजारी नहीं देने के साथ ही अंग्रेज हमारी माटी छोड़ो का ऐलान किया. इससे घबरा कर अंग्रेजों ने विद्रोहियों को रोकना शुरू कर दिया. अंग्रेज सरकार की ओर से आए जमीदारों और सिपाहियों का संथालों ने डटकर मुकाबला किया. इस बीच इन्हे रोकने के लिए अंग्रेजों ने क्रूरता की सभी हदें पार कर दीं. सिद्धू और कान्हू को अंग्रेजों ने पकड़ लिया और उन्हें भोगनाडीह गांव में पेड़ से लटका कर 26 जुलाई, 1855 को फांसी दे दी. इन्हीं शहीदों की याद में हर साल 30 जून को हूल क्रांति दिवस मनाया जाता है. इस महान क्रांति में लगभग 20,000 लोगों ने शहादत दी थी.
संताल आदिवासी परिवार में दौ वीर भाईयों का जन्म
संताल परगना के संताल आदिवासी परिवार में दो वीर भाईयों, सिदो और कान्हू मुर्मू, का जन्म हुआ, जिन्हें संताल हूल के नायकों के रूप में जाना जाता है. इन भाइयों ने अपने तीर-धनुष के बल पर अंग्रेजों के आधुनिक हथियारों को चुनौती दी थी. उनका जन्म भोगनाडीह नामक गांव में हुआ, जो वर्तमान में झारखंड के साहेबगंज जिले के बरहेट प्रखंड में स्थित है. कहा जाता है कि सिदो का जन्म 1815 ई. और कान्हू का 1820 ई. में हुआ, लेकिन इनकी जन्मतिथि को लेकर इतिहासकारों में कोई स्पष्टता नहीं है. सिदो और कान्हू के अलावा, उनके दो अन्य भाई चांद मुर्मू और भैरव मुर्मू भी थे, जिनका जन्म क्रमशः 1825 और 1835 में हुआ. इसके साथ ही, उनकी दो बहनें फुलो और झानो भी थीं.
धर्म बनी विद्रोह के पीछे की वजह
भोगनाडीह में ‘कादम ढडी’ नामक एक जल स्रोत जो आज भी अस्तित्व में है, जिसे घेर कर कुआं बना दिया गया था. ब्रिटिश शासको ने इस पर भी लगान लगा दिया था. कहते हैं कि इसी कुएं पर सिदो-कान्हू स्नान कर ‘जाहेर एरा’ (संतालों का देवी) की पूजा करते थे, और उन्हें साक्षात दर्शन देकर बताते थे कि आगे की रणनीति क्या होगी. सही मायने में ‘हुल’ की शुरुआत ‘जाहेर एरा’ से ही हुई. इसलिए कुछ इतिहासकार संथाल हुल को धर्म युद्ध भी मानते है. संथाल हुल ने इस विद्रोह में आग में घी का काम किया, इससे इंकार नहीं किया जा सकता.