प्रशांत/न्यूज़11 भारत
हजारीबाग/डेस्क: कभी खेतों में सुबह होते ही बैलों के गले में बंधी घंटियों की मधुर आवाज गूंज उठती थी. यह आवाज किसानों के जीवन का अटूट हिस्सा थी, जो बताती थी कि हल जुतने को तैयार हैं. लेकिन आज, उन घंटियों की खनक ट्रैक्टरों के शोर में कहीं दब सी गई है. अब खेतों में बैलों की जोड़ी नहीं, बल्कि शक्तिशाली ट्रैक्टर सरपट दौड़ते नजर आते हैं. यह बदलाव ग्रामीण भारत की कृषि पद्धति में आई एक बड़ी क्रांति का प्रतीक है. दशकों पहले, गांव-गांव में बैलों के बिना खेती की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी. सुबह से शाम तक किसान अपने बैलों के साथ खेतों में पसीना की बुवाई और जुताई निर्भर करती थी. हर बहाते थे.
बैलों की चाल और उनकी शक्ति पर ही फसल किसान अपने बैलों को परिवार के सदस्य की तरह मानता था, उनका ख्याल रखता था और उन्हें सजाता-संवारता था. लेकिन समय के साथ तकनीक ने कृषि क्षेत्र में अपनी जगह बनाई. ट्रैक्टर, जो पहले कुछ बड़े किसानों तक सीमित थे, अब छोटे और मझोले किसानों के लिए भी सुलभ हो गए हैं. ट्रैक्टर से कम समय में ज्यादा खेत जोते जा सकते हैं, और यह श्रम भी बचाता है. एक दिन में जितना काम एक ट्रैक्टर कर सकता है, उसे करने में बैलों की कई जोड़ियों को कई दिन लग जाते थे. नतीजतन, बैलों की संख्या में तेजी से कमी आई है. गांव के हाटों में अब बैलों की खरीदारी पहले जैसी नहीं होती. कई युवा किसान तो शायद ही कभी बैलों से खेती करते देखें. उनका रुझान पूरी तरह से मशीनीकृत कृषि की ओर हो गया है. यह निश्चित रूप से कृषि उत्पादकता बढ़ाने में मददगार साबित हुआ है, लेकिन इसके साथ ही एक पुरानी परंपरा और एक विशेष संस्कृति भी धीरे-धीरे विलुप्त होती जा रही है. आज जब कोई किसान अपने खेतों से गुजरता है, तो उसे बैलों की घंटियों की नहीं, बल्कि ट्रैक्टर के इंजन की दमदार आवाज सुनाई देती है. यह आधुनिकता निशानी है, जो बताती आवाज की है कि भारतीय कृषि ने लंबा सफर तय किया है. लेकिन कहीं न कहीं, उन पुराने दिनों की यादें, जब खेतों में बैलों की घंटियों की आवाज एक सुकून भरी धुन पैदा करती थी, आज भी कई लोगों के मन में बसी हुई है.