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रांची/डेस्क: झारखंड की राजधानी रांची के चुटिया क्षेत्र में एक अनोखी धार्मिक और ऐतिहासिक धरोहर मौजूद है, जो अब भी लोगों की नजरों से काफी हद तक ओझल हैं. स्वर्णरेखा नदी की चट्टानों के बीच स्थित यह स्थल किसी मंदिर का परिसर नहीं बल्कि प्रकृति के आंगन में बसी शिवभक्ति की एक रहस्यमयी विरासत हैं. यहां भगवान शिव के 21 प्राचीन शिवलिंग नदी की धाराओं के बीच चुपचाप विराजमान है, जो श्रद्धालुओं के लिए चमत्कारी अनुभव से कम नहीं.
यह स्थल उस समय की कहानी कहता है जब नागवंशी शासकों का झारखंड पर शासन था. इतिहासकारों और स्थानीय बुजुर्गों के अनुसार, लगभग 400 वर्ष पहले नागवंशी राजाओं ने इसे अपनी रानियों की संतान प्राप्ति की तपस्थली के रूप में स्थापित किया था. सावन के महीने में यहां की रौनक देखते ही बनती है, जब शिवभक्त जलाभिषेक के लिए उमड़ पड़ते हैं.
यहां सबसे खास बात यह है कि ये शिवलिंग किसी आधुनिक निर्माण का परिणाम नहीं बल्कि प्रकृति की गोद में शिव की अलौकिक उपस्थिति के प्रतीक हैं. जब स्वर्णरेखा की लहरें इन शिवलिंगों को छूती है तो ऐसा प्रतीत होता है जैसे मां गंगा स्वयं शिव का अभिषेक कर रही हो. भक्तों की मान्यता है कि यहांजलाभिषेक करने से विशेष रूप से कालसर्प दोष से मुक्ति मिलती है और सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं. इस स्थल का सौंदर्य केवल धार्मिक ही नहीं प्राकृतिक दृष्टि से भी दुर्लभ हैं. हरमू और स्वर्णरेखा नदियों के संगम पर स्थित यह स्थान साल में एक बार कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर एक विशाल मेले का भी गवाह बनता है, जहां दूर-दराज से श्रद्धालु और पर्यटक पहुंचते हैं.
हालांकि, आज यह अलौकिक धरोहर संकट के दौर से गुजर रही हैं. कभी जहां साफ पानी और हरियाली थी, वहां अब गंदगी, प्लास्टिक और नालों का पानी बहता हैं. श्रद्धालुओं और स्थानीय लोगों ने सरकार से अपील की है कि इस ऐतिहासिक धरोहर को धार्मिक-पर्यटन स्थल के रूप में विकसित किया जाए और स्वर्णरेखा नदी की स्वच्छता सुनिश्चित की जाए.
‘इक्कीसो महादेव धाम’ के रूप में पहचाना जाने वाला यह स्थान अब धीरे-धीरे स्थानीय प्रयासों से पुनर्जीवित हो रहा हैं. यह सिर्फ एक धार्मिक स्थल नहीं, बल्कि झारखंड की सांस्कृतिक आत्मा और नागवंशी विरासत की जीती-जागती गाथा हैं. यहां जब श्रद्धालु जल चढ़ाते है तो वे केवल एक परंपरा का पालन नहीं करते, बल्कि वे अपने भीतर की आस्था और पुरखों की श्रद्धा को फिर से जीवित करते हैं. शिव की शरण में बसी यह चट्टानी गाथा अब एक नई पहचान की राह पर है, जरूरत है बस एक संवेदनशील पहल की, ताकि यह विरासत आने वाली पीढ़ियों को भी उतनी ही श्रद्धा और गौरव के साथ मिल सके.