न्यूज 11 भारत
रांची/डेस्क: महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडणवीस ने शिक्षा में हिंदी की अनिवार्यता को लेकर दिये गये अपने आदेश को वापस लेकर विवाद को थामने का प्रयास जरूर किया है, लेकिन नहीं लगता है कि यह विवाद इतनी आसानी से शांत होने वाला है. जो भी हो अगर इस घटनाक्रम को देखें तो जब तक मुख्यमंत्री फडणवीस ने हिंदी की अनिवार्यता का आदेश वापस नहीं लिया था, तब तक राज्य में विपक्ष पूरी तरह से
हमलावर था, लेकिन जैसे ही यह आदेश वापस लिया गया, विपक्ष में बैठे उद्धव ठाकरे के सुर ढीले पड़ गये, सच कहा जाये तो उन्हें भी धरातल का अहसास हो गया. उन्हें कहना पड़ा कि वह और उनकी पार्टी हिंदी के विरोधी नहीं है. हम इसे थोपे जाने का विरोध कर रहे हैं. इस बयान के बड़े मायने हैं. क्योंकि इसमें महाराष्ट्र की पहचान और भविष्य दोनों निर्भर है.
महाराष्ट्र, विशेष कर मुम्बई की पहचान आखिर क्या है? क्या वहां के उद्योग धंधे, क्या वहां का पर्यटन, क्या वहां के धर्म स्थल या कुछ और? विशेषकर मुम्बई की पहचान है बॉलीवुड. अगर मुम्बई से बॉलीवुड को हटा दिया जाये तो मुम्बई के साथ महाराष्ट्र अपनी गौरवशाली पहचान को एक झटके में खो देगा. शायद इसकी शुरुआत भी हो चुकी है. लेकिन इसके लिए थोड़ा इन्तजार करना होगा. भले ही मुम्बई और महाराष्ट्र फिल्म उद्योग के लिए बेहद सही जगह हैं. लेकिन उत्तर प्रदेश के जेवर में जो फिल्म सिटी तैयार हो रही है, उसमें पूरी तरह तो नहीं, लेकिन महाराष्ट्र को बहुत बड़ा झटका देने की सामर्थ्य तो जरूर होगी.
खैर, यह तो भविष्य की बात है, सच तो यह है कि मुम्बई ही नहीं, पूरे महाराष्ट्र को हिन्दी ने बड़ी पहचान दी है. इसमें बॉलीवुड का योगदान किसी से छुपा नहीं है. आज महाराष्ट्र के नेता (विपक्षी) भले ही हिंदी का विरोध कर लें. लेकिन जितनी शान के साथ खुद को महाराष्ट्रियन कहते हैं, उसमें हिंदी के योगदान को नहीं नकार सकते हैं.
याद होगा एक समय था जब महाराष्ट्र में बिहार के महापर्व छठ को बड़े ही हेय दृष्टि से देखा जाता था, उसका विरोध करने वालों में महाराष्ट्र के कई बड़े नेता भी होते थे, लेकिन आज छठ महापर्व महाराष्ट्र में जितनी शान के शान मनाया जाता है, वह बिहार की ही नहीं, महाराष्ट्र की भी शान बन गया है.
विरोध अपनी जगह है, लेकिन विरोध की वजह उचित होनी चाहिए. हिन्दी का विरोध अगर दक्षिण के राज्यों में हो तो भी समझ में आता है. लेकिन एक ऐसे राज्य में जहां हिन्दी वहां की स्थानीय भाषाओं के साथ-साथ चली है, वहां इसका विरोध नहीं ही होना चाहिए. फिर भी देखना है कि यह विवाद अभी आगे क्या रंग लेता है. फिलहाल महाराष्ट्र सरकार ने हिंदी सीखने की 'अनिवार्यता' को हटा कर विवाद को समाप्त करने का प्रयास किया है.