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झारखंड


'जमीन, भाषा, संस्कृति, स्वशासन और आत्मसम्मान' की अमर सीख दे गये गुरुजी

जंगल से शुरू हुआ संघर्ष सदन पहुंच कर भी नहीं थमा
'जमीन, भाषा, संस्कृति, स्वशासन और आत्मसम्मान' की अमर सीख दे गये गुरुजी

न्यूज11 भारत 

रांची/डेस्क: झारखंड जिन्हें 'गुरुजी' कहता है, अब चिर अनन्त काल के लिए मौन हो चुके हैं, लेकिन उनकी 'शिक्षाएं' (विचार) भी अनन्त काल तक सिर्फ झारखंड ही नहीं, पूरे देश को ऊर्जा देते रहेंगे. 'गुरुजी' सिर्फ एक नेता नहीं, बल्कि पूरी संस्कृति थे. जंगल से जो आवाज उठनी शुरू हुई, वह संसद तक गूंजती रही. यानी झारखंड की मिट्टी को संविधान से जोड़ने का माद्दा रखते थे गुरु जी. आज भले ही झारखंड मुक्ति मोर्चा के संस्थापक शिबू सोरेन का 81 साल की उम्र में निधन हो गया है, पर वह अपने जो पीछे जो कुछ भी छोड़ गये हैं. वह युगों तक झारखंड की थाती बनकर जीवित रहेंगे.

शिबू सोरेन की जीवनी एक नेता की नहीं, बल्कि विद्रोही की जीवन-गाथा है. यह विद्रोह उन्होंने अपने लिए नहीं, बल्कि अपने समाज और अपने राज्य के लिए किया. 11 जनवरी 1944 को रामगढ़ जिले के नेमरा गांव में जन्मे शिबू सोरेन ने अपने बचपन में जो कुछ भी देखा, उसने ही उन्हें 'विद्रोही' नेता बनाया. पिता सोबन सोरेन को महाजनों ने पीट-पीट कर सिर्फ इसलिए मार डाला था, क्योंकि उन्होंने बगैर ब्याज के ऋण लौटाने का साहस किया था. बस यहीं से शिबू के भीतर इस समाज  के विरुद्ध विद्रोह की ऐसी ज्वाला सुलगी जो आगे चलकर जन आंदोलन के ज्वालामुखी में बदल गयी. शिबू सोरेन ने बचपन से अपने आसपास महाजनों और जमींदारों के द्वारा आदिवासियों का शोषण देखा था. उन्होंने देखा कि कैसे भोले-भाले आदिवासियों की जमीनों पर ये महाजन कब्जा करते चले जा रहे हैं और आदिवासी अपने ही देश में परदेशी बनते जा रहे हैं.

राजनीति के सफर में भी समाज  की पीड़ा जीवित रही 

शिबू सोरेन केवल कुर्सी के लिए राजनीतिक खेल नहीं खेला, बल्कि संघर्षों से जनविश्वास को जीतने का प्रयास किया है. उनका यह राजनीतिक सफर कितना विकट था इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि उन्होंने जंगलों से निकलकर संसद का रास्ता तय किया. शिबू सोरेन संसद तक तो जरूर पहुंचे लेकिन जंगल की खुशबू हमेशा अपने साथ लिये रहे. समाज की पीड़ा को अपने राजनीति सफर में भी हमेशा जीवित रखा. 

जब भारत के आदिवासी आंदोलनों का इतिहास लिखा जाएगा, तो उसमें दो प्रमुख मोड़ हमेशा उभर कर सामने आएंगे,पहला, 1855 का संथाल विद्रोह और दूसरा, 1970–2000 के झारखंड आंदोलन का उत्कर्ष, जिसका नेतृत्व शिबू सोरेन ने किया. इन दोनों संघर्षों के समय, परिप्रेक्ष्य और रणनीतियाँ भिन्न हो सकती हैं लेकिन मूल चेतना, उद्देश्य और अस्मिता की रक्षा की भावना एक ही थी.

 

झारखंड के महापुरुषों की विरासत को आगे बढ़ाया

शिबू सोरेन झारखंड के महापुरुषों, सिदो-कान्हू, चांद-भैरव, और फुलो-झानो के विचारों से पूरी तरह प्रभावित थे, जिन्होंने अंग्रेज़ी राज, महाजनों और जमींदारों के खिलाफ बगावत का बिगुल फूंका था. इन्हीं महापुरुषों के विचारों ने शिबू सोरेन की चेतना की अगली कड़ी का काम किया. शिबू सोरेन का प्रारंभिक संघर्ष भी संथाल विद्रोह की ही तरह था. उन्होंने महाजनों के खिलाफ, ज़मींदारों के शोषण के खिलाफ ‘धान काटो आंदोलन’, जंगल में समाज सुधार सभाएं, शराबबंदी अभियान, बाल विवाह विरोध जैसे आन्दोलनों को जन्म दिया. शुरुआत में उनका आंदोलन उग्र था, मगर बाद में उन्होंने इस संघर्ष को वैचारिक संघर्ष में बदल दिया. महाजनी और जमींदारी शोषण के खिलाफ शिबू सोरेन ने ग्राम सभा की सर्वोच्चता, पेसा अधिनियम, और जनजातीय स्वशासन की धारणा को संवैधानिक पहचान दिलाने का प्रयास किया.

झारखंड मुक्ति मोर्चा का गठन

1970 के दशक में शिबू सोरेन ने झारखंड अलग राज्य को रफ्तार देने के लिए झारखंड मुक्ति मोर्चा नामक पार्टी का गठन किया. 1972 में एके राय और बिनोद बिहार महतो के साथ मिलकर उन्होंने झामुमो की स्थापना की. यह पार्टी आदिवासियों की आवाज़ बनी. 

जंगल का संघर्ष सदन तक पहुंचाया

शिबू सोरेन अच्छी तरह से समझ चुके थे कि सिर्फ जंगलों में संघर्ष करने से आदिवासियों को उनके अधिकार नहीं मिल सकते. इसलिए उन्होंने अपने संघर्ष को और धार देने और व्यापक बनाने के लिए राजनीति के उस रास्ते पर चलने का फैसला लिया जो संविधान के द्वार यानी देश की संसद तक पहुंचता है. क्योंकि यहां कही गयी बात पूरा देश सुनता है. इसीलिए उन्होंने 1980 में पहली बार लोकसभा का चुनाव लड़ा और जीत हासिल की. दुमका से सांसद बनकर संसद में प्रवेश किया. इसके बाद 1989, 1991, 1996, 2002, 2004 और 2009 में भी वह सांसद बने. केंद्र सरकारों में कोयला मंत्री और जनजातीय मामलों के मंत्री जैसे महत्वपूर्ण पदों को सुशोभित किया. अपने प्रयासों से कई जनजातीय क्षेत्रों में कई योजनाएं लागू करवायीं. वन अधिकार कानून की दिशा में काम किया, मगर उनके हिस्से सबसे बड़ी उपलब्धि आयी- झारखंड राज्य का निर्माण. शिबू सोरेन के प्रयासों का ही फल था कि 15 नवम्बर, 2000 में झारखंड अलग राज्य अस्तित्व में आया.

 

इन पदों की बढ़ाई शोभा

  • 1986 में JMM के महासिचव
  • 8 जुलाई, 1998 से 18 जुलाई, 2001 तक राज्यसभा सदस्य रहे
  • 10 अप्रैल, 2002 से 2 जून, 2002 तक राज्यसभा सदस्य रहे
  • मई 2004 से 10 मार्च, 2005 तक केंद्रीय कोयला मंत्री
  • 2 मार्च, 2005 से 11 मार्च, 2005 तक झारखंड के मुख्यमंत्री
  • 29 जनवरी, 2006 से 28 नवंबर, 2006 तक केंद्रीय कोयला
  • 31 अगस्त, 2009 को कोयला और स्टील की स्टैंडिंग कमेटी के सदस्य
  • 23 सितंबर, 2009 को वेतन और भत्तों की संयुक्त समिति के सदस्य
  • 7 अक्टूबर, 2014 में खाद्य आपूर्ति और उपभोक्ता मामलों की स्थायी समिति के सदस्य
  • स्टील मंत्रालय की सलाहकार समिति के सदस्य

गुरु जी का पूरा जीवन एक प्रेरणा है जो सिखाता है कि अन्याय के विरुद्ध संघर्ष करना चाहिए, पर रास्ता सोच-समझ कर चुनें. जंगल की राजनीति से निकल कर शिबू सोरेन संसद तक पहुंचे, लेकिन सत्ता का हिस्सा बन कर भी उन्होंने अपनी माटी नहीं छोड़ी. उन्होंने अपने मूल सवालों को कभी नहीं भूला. जमीन, भाषा, संस्कृति, स्वशासन और आत्मसम्मान के लिए अंतिम सांस तक संघर्ष करते रहे.

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