भारत एक ऐसा देश है जिसकी बाईस भाषाओं को भाषा व कार्यभाषा का दर्जा प्राप्त है लेकिन इसके बावजूद देश में अधिकांश प्रशासनिक कार्य अंग्रेजी में होते है. देश के भीतर भाषा के स्तर पर हीनता बोध का ही प्रभाव है कि आज शिक्षा, विज्ञान, तकनीक और रोजगार की भाषा अंग्रेजी बन गई है.
भारत में हिन्दी कब बनी आधिकारिक भाषा
6 दिसंबर 1946 को आजाद भारत का संविधान तैयार करने के लिए संविधान सभा का गठन हुआ. सच्चिदानंद सिन्हा संविधान सभा के अंतरिम अध्यक्ष बनाए गए. इसके बाद डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद को इसका अध्यक्ष चुना गया. डॉ. भीमराव अंबेडकर संविधान सभा की ड्राफ्टिंग कमेटी (संविधान का मसौदा तैयार करने वाली कमेटी) के चेयरमैन थे. संविधान में विभिन्न नियम-कानून के अलावा नए राष्ट्र की आधिकारिक भाषा का मुद्दा भी अहम था क्योंकि भारत में सैकड़ों भाषाएं और हजारों बोलियां थीं. काफी विचार-विमर्श के बाद हिन्दी और अंग्रेजी को नए राष्ट्र की आधिकारिक भाषा चुना गया. 14 सितंबर 1949 को संविधान सभा ने देवनागरी लिपि में लिखी हिन्दी को अंग्रेजी के साथ राष्ट्र की आधिकारिक भाषा के तौर पर स्वीकार किया. बाद में जवाहरलाल नेहरू सरकार ने इस ऐतिहासिक दिन के महत्व को देखते हुए हर साल 14 सितंबर को ‘हिन्दी दिवस’ के रूप में मनाने का फैसला किया. पहला आधिकारिक हिन्दी दिवस 14 सितंबर 1953 को मनाया गया था.
देश की प्रतिष्ठित सेवाओं में शुमार संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा भी इंग्लिश के वर्चस्व को तोड़ने में नाकाम रही है क्योंकि यहां हर साल परीक्षा में चयनित विद्यार्थियों में अधिकांश का परीक्षा का माध्यम अंग्रेजी होता है. कुछ गिने-चुने ही छात्र होते हैं जो अपनी मातृभाषा और हिंदी भाषा के जरिए इस पद तक पहुंच पाते हैं.
आज के समय की स्थिति यह कि छात्र हिंदी के प्रति गर्व तो करते हैं लेकिन उसे आत्मविश्वास के साथ परीक्षा का माध्यम बनाने से डर रहे हैं. उनके भीतर का यह डर अंग्रेजी के बढ़ते वर्चस्व से उत्पन्न हुआ है जिसने हिंदी के साथ ही उसकी अन्य भाषाओं को कमजोर और हीन बना दिया है.
वर्तमान समय में हिंदी विश्व बाजार की भाषा बन गई है. वैश्विक फलक पर इसे पढ़ाया तक जाने लगा है किंतु देश के भीतर ही यह दयनीय स्थिति तक पहुंच गई. जहां इसका अपना अस्तित्व संकट में देखा जा सकता है.
नई शिक्षा नीति 2020 में भी बच्चों की सीखने की क्षमता को हीनता बोध से बाहर लाने के लिए मातृभाषा में शिक्षा की बात की गई है. जिस पर आजादी के समय से ही बहस चल रही थी जिसमें मुख्य रूप से महात्मा गांधी द्वारा ‘नई तालीम’ शिक्षा प्रणाली मातृभाषा के द्वारा शिक्षा की हिमायती थी. लेकिन आज़ादी के बाद यह व्यवस्था गाँधी जी की मृत्यु के उपरांत उनका विचार बनकर रह गई.
भारत में भाषाओं की क्या स्थिति है इसे नई शिक्षा नीति की रिपोर्ट से जाना जा सकता है जहां कहा गया कि ‘दुर्भाग्य से, भारतीय भाषाओं को समुचित ध्यान और देखभाल नहीं मिल पाई जिसके तहत देश ने विगत 50 वर्षों में 220 भाषाओं को खो दिया है.
यूनेस्को ने 197 भारतीय भाषाओं को लुप्तप्राय घोषित किया है. विभिन्न भाषाएं विलुप्त होने के कगार पर हैं विशेषत: वे भाषाएं जिनकी लिपि नहीं है’. नई शिक्षा नीति बेशक आज मातृभाषा में शिक्षा की पहल कर रही है लेकिन वह उसकी अनिवार्यता पर अभी खामोश है. इसमें तकनीकी क्रांति व नवाचार को तो शिक्षा का अहम हिस्सा बनाया लेकिन उसके माध्यम की भाषा तय नहीं की गई है.
हर वर्ष हिंदी दिवस पर हिंदी को बचाने की बहस होती है और यह बहस कितनी कारगर होती है इसे जमीनी स्तर पर देश की अंग्रेजी माध्यम से संचालित कार्य प्रणाली में देखा जा सकता है. जहांं सभी सूचनाओं का पहला प्रसारण अंग्रेजी और फिर अनुवाद के रूप में हिंदी व अन्य भाषाओं में आता है.
अंग्रेजी हमारी मातृ भाषा नहीं है फिर भी इसकी अनिवार्यता ने हमें अपनी मातृभाषा व राष्ट्रभाषा से दूर अंग्रेजी को कार्यभाषा बनाने के लिए मजबूर कर दिया है. हिंदी भाषा व भारतीयों की पहचान पर बहस आज से नहीं बल्कि यह बहस आजादी से पूर्व से चली आ रही है. जिस पर भारतेंदु हरिश्चंद्र कहते हैं कि ‘निज भाषा उन्नति अहै,सब उन्नति को मूल,बिन निज भाषा ज्ञान के,मिटन न हिय के सूल'.
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