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रांचीः आज 30 जून संताल परगना के संताल समाज और पूरे झारखंड के लिए एक खास दिवस है. बता दें, आज हूल दिवस है जिसे सिदो कान्हू ने संताल आंदोलन का रुप दिया था. इस विद्रोह में सिदो-कान्हू दो वीर भाईयों ने ब्रिटिश सत्ता, साहुकारों, व्यापारियों और जमींदारों के अत्याचारों के खिलाफ संताल विद्रोह(आंदोलन) की शुरुआत की थी. वहीं आज के दिन सिदो कान्हू के गांव भोगनाडीह में सरकार की ओर से विकास मेला का आयोजन किया जाता है. और दोनों शहीद वीर भाई सिदो-कान्हू को याद किया जाता है. इस मौके पर राज्य के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन कल से ही संताल के दो दिवसीय दौरे पर है. वहीं कोरोना काल के बाद आज दो साल बाद वे शहीद सिदो-कान्हू के गांव भोगनाडीह पहुंचकर दोनों शहीद भाइयों की प्रतिमा पर माल्यार्णप करते हुए उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करेंगे. आइए अब हम जानते है हूल दिवस (विद्रोह, आंदोलन) और सिदो-कान्हू के जीवन के बारे में कुछ रोचक बातें.
संताल आदिवासी परिवार दो वीर भाईयों का जन्म
संताल परगना में संताल आदिवासी परिवार में दो वीर भाईयों का जन्म हुआ था जिसे हम संताल हूल के नायक सिदो-कान्हू मुर्मू के नाम से जानते है. इन दोनों भाइयों ने अपने तीर-धनुष के आगे अंग्रेजों के आधुनिक हथियारों को झुकने पर मजबूर कर दिया था. इनका जन्म भोगनाडीह नाम के एक गांव के संताल आदिवासी परिवार में हुआ था जो अब झारखंड के साहेबगंज जिला के बरहेट प्रखंड में स्थित है. कहा जाता है कि सिदो का जन्म 1815 ई. और कान्हू मुर्मू का जन्म 1820 ई. में हुआ था लेकिन इन दोनों भाईयों के जन्म तारीख को लेकर इतिहासकार समेत कई लेखक मौन ही रहे. कई पुस्तकों में तो सिदो-कान्हू के जन्म का जिक्र भी नहीं है.
संथाल विद्रोह में सक्रिय भूमिका निभाने वाले सिदो-कान्हू के दो और भाई भी थे जिनका नाम चांद मुर्मू और भैरव मुर्मू था. चांद का जन्म 1825 ई. में और भैरव का जन्म 1835 ई. में हुआ था. इनके अलावा इनकी दो बहनें भी थी जिनका नाम फुलो और झानो मुर्मू था. इन 6 भाई-बहनों के पिता का नाम चुन्नी मांझी था.
1855-56 के बीच हुआ था हूल आंदोलन
ब्रिटिश सत्ता, साहुकारों, व्यापारियों और जमींदारों के अत्याचारों के खिलाफ सिदो-कान्हू ने 1855-56 में एक विद्रोह की शुरुआत की थी, जिसे संताल विद्रोह या हूल आंदोलन के नाम से जाना जाता है संताल विद्रोह का नारा था करो या मरो अंग्रेजो हमारी माटी छोड़ो. कहा जाता है कि सिदो ने अपनी दैवीय शक्ति का हवाला देते हुए सभी मांझियों को साल की टहनी भेजकर संथाल हूल में शामिल होने के लिए आमंत्रन भेजा था. जिसके उपरांत 30 जून 1855 को भोगनाडीह में संताली आदिवासियों की एक सभा हुई, जिसमें 400 गांवों के करीब 50,000 संताल एकत्र हुए थे.
अंग्रेजों ने पकड़कर सिदो-कान्हू को दी फांसी
सभा के बाद हूल आंदोलन का ऐलान किया गया. जिसमें सिदो को राजा, कान्हू को मंत्री, चांद को मंत्री और भैरव को सेनापति चुना गया. और यहीं से आंदोलन को शुरू किया गया. जिसमें संथाल तीर-धनुष से लेस अपने दुश्मनों पर टूट पड़े थे. जबकि अंग्रेजों में इसका नेतृत्व जनरल लॉयर्ड ने किया था जो आधुनिक हथियार और गोला बारूद से परिपूर्ण थे इस मुठभेड़ में महेश लाल व प्रताप नारायण नामक दरोगा की हत्या कर दी गई इससे अंग्रेजो में भय का माहौल बन गया.कहा जाता है कि संथालों के हूल आंदोलन से भय होकर अंग्रेजों ने उनसे बचने के लिए पाकुड़ में मार्टिलो टावर का निर्माण भी कराया था जो आज भी झारखण्ड के पाकुड़ जिले में स्थित है. अंत में अंग्रेजों के साथ इस मुठभेड़ में संथालों कि हार हुई और सिदो-कान्हू को फांसी की सजा दी गई.
कहा ये भी जाता है कि इस भयंकर मुठभेड़ में संथालों की हार हुई क्योंकि ये तीर-धनुष से लड़ रहे थे जबकि अंग्रेजों के पास आधुनिक हथियार थे. सिदो को अगस्त 1855 में पकड़कर पंचकठिया नामक जगह पर बरगद के पेड़ पर फांसी दी गई. जो पेड़ आज भी पंचकठिया में जस का तस स्थित है जिसे शहीद स्थल कहा जाता है. इसके बाद कान्हू को भी अंग्रेजों ने पकड़कर फांसी दे दी. हालांकि संतालों के इस हार पर भी उन्होंने अंग्रेजी हुकूमत को जड़ से हिलाकर रख दिया था.
बता दें, सिदो-कान्हू के नेतृत्व में शुरु की गई संताल विद्रोह को अर्थशास्त्री और इतिहासकार कार्ल मार्क्स ने 'भारत का प्रथम जनक्रांति' कहा था.