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रांची/डेस्क: भगवन कृष्ण के मुकुट में सजा मोरपंख, केवल उनके सुंदरता का आभूषण नहीं, बल्कि गहरी पौराणिक कथाओं, अध्यात्मिक अर्थों और शास्त्रीय मान्यताओं से जुड़ा प्रतिक हैं. भक्ति की दुनिया में यह विश्वास है कि कान्हा के बिना अधूरी है, और बांसुरी के बिना मोरपंख. आखिर यह परंपरा कैसे शुरू हुई? इसके पीछे तीन अद्भुत कथाएं है, इसके साथ ही आध्यात्मिक रहस्य जिनका वर्णन धर्मग्रंथों में मिलता हैं.
पहली कथा राहू दोष और मां का उपाय
धार्मिक ग्रंथो के मुताबिक, नन्हे कृष्ण का जन्म हुआ था, तो कुछ दिनों बाद माता यशोदा ने उनकी कुंडली एक ज्योतिषी को दिखाई थी. ज्योतिषी ने उन्हें बताया कि कान्हा पर राहु दोष हैं. मां के प्रेम में डूबी यशोदा ने तुरंत उपाय पूछा, तो उन्हें जवाब मिला कि उनके मुकुट में अब हमेशा के लिए मोरपंख रहेगा.
दूसरी कथा श्रृंगार में मोरपंख की छवि
एक अन्य कथा में वर्णन किया गया है कि मां यशोदा कान्हा को रोज अलग-अलग श्रृंगार से सजाती थीं. उन्होंने एक दिन मोरपंख का श्रृंगार किया. मोरपंख के श्रृंगार होने के बाद बालकृष्ण की मनमोहक छवि को देखकर सब मंत्रमुग्ध हो गए. उस दिन से मोरपंख, उनके मुकुट का स्थायी हिस्सा बन गया.
तीनों कथा मोरों का उपचार
एक और प्रसंग में बताया जाता है कि एक बार बाल कृष्ण वन में बांसुरी बजा रहे थे. मोरों का एक झुंड उनकी मंत्रमुग्ध धुन को सुनकर नृत्य करने लगा. नृत्य समाप्त होने के पश्चात मोरों के सेनापति ने सबसे सुंदर पंख लड्डू गोपाल के चरणों में अर्पित किया. कृष्ण ने प्रेम से उसे स्वीकार किया और अपने सिर पर धारण कर लिया.
अध्यात्मिक महत्व
हिंदू धर्म में मोरपंख का सौभाग्य, प्रेम, शांति और सकारात्मक ऊर्जा का प्रतिक माना गया हैं. गरुड़ पुराण और विष्णु पुराण में वर्णन मिलता है कि मोर के पंख पर ब्रह्मांड के रंग बसते है, नीला, हरा, सुनहरा, जो सृष्टि के संतुलन का प्रतिनिधित्व करते हैं. वहीं भगवत पुराण में कृष्ण के श्रृंगार में मोरपंख का वर्णन,उनकी लीलाओं की मधुरता और प्रकृति के साथ उनके अटूट संबंध का प्रतिक माना गया हैं. मोरपंख को "तमस" मतलब नकारात्मक ऊर्जा का नाशक भी कहा गया हैं. राहु केतु जैसे ग्रह दोष इसे घर में रखने से शांत होते हैं और मानसिक शांति मिलती हैं.
मोरपंख के बिना आज भी अधूरी मानी जाती है भक्ति
इन कथाओं और आध्यात्मिक महत्व के चलते, आज भीं भगवान कृष्ण की भक्ति मोरपंख के बिना अधूरी मानी जाती हैं. भक्त मानते हैं कि मोरपंख केवल श्रृंगार नहीं, बल्कि भगवान की लीला, प्रेम और संरक्षण का प्रतिक हैं. यही कारण है कि जन्माष्टमी से लेकर रोज़ाना की पूजा तक, मोरपंख कान्हा की पहचान का अभिन्न हिस्सा हैं.