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झारखंड


करीब 150 साल पहले रांची नाम का अस्तित्व ही नहीं था, आज पूरे देश में हो चुका है प्रसिद्ध, ये है Ranchi का इतिहास..

आज के 12 लाख आबादी वाला शहर रांची की सड़के कभी हुआ करती थी वीरान, अचानक कैसे बदला रांची?
करीब 150 साल पहले रांची नाम का अस्तित्व ही नहीं था, आज पूरे देश में हो चुका है प्रसिद्ध, ये है Ranchi का इतिहास..

न्यूज11 भारत


रांची/डेस्कः- जब आप महिलाओं के पीठ पर छोटे बच्चे बंधे हुए देखेंगे और सिर पर सामानों की पोटली दिखेगी तो आप समझ जाइए कि आप रांची पहुंच चुके हैं. 100 साल पुरानी बात हो या फिर 100 साल आगे की ये पहचान रांची की बनी रहेगी. आज भी आप यहां बाजार में सब्जी बेचती हुई महिला के सर पर गठरी बंधा हुआ व पीट पर बच्चे देख सकते हैं. वैसे रांची नाम की उत्पत्ति कहीं स्पष्ट नहीं है, माना जाता है कि रांची का नाम मुंडारी के अरंची नाम से पड़ा है. मुंडारी में अरंची को हल जोतने के सामान को कहा जाता है. कहीं कहीं कहा जाता है कि रांची का नाम रिची नाम की पक्षी के नाम पर पड़ा है. रिची पक्षी का बसेरा पहाड़ी मंदिर के आसपास था. 1845 तक कहा जाता है कि रांची क्षेत्र की प्रशासन लहरदगा से चलता था. वहीं अंग्रेजी हूकूमत ने किशुनपुर नाम के एक गांव को लोहरदगा से अलग कर दिया था. बाद में किशुनपुर को ही रांची में बदल दिया गया. 100 साल पुराने इस शहर की तस्वीर देखेंगे तो पता चलेगा कि जिस शहर की आबादी आज 12 लाख से भी अधिक है उस जमाने में इस शहर में कुछ हजार लोग ही रहा करते हैं. आज रांची के जिस रोड में पैदल चलना मु्स्किल है वहीं 100 साल पहले 1 आदमी भी दिखना मुश्किल था. लोहरदगा से जब किशुनपुर को अलग किया गया उस समय रांची में कोई जगह नहीं था केवल दो-चार गांव था उसमें से चुटिया, सिरमटोली, पिठौरिया व पत्थलकुदवा शामिल है. आधिकारिक रुप से 1899 को रांची जिला बना. 

 

150 साल पहले नहीं था कुछ कारखाना

रांची शहर के एक निवासी बताते हैं कि देश की आजादी तक इस शहर का कोई स्वरुप नहीं था. चुटिया और बहु बाजार मुख्य केंद्र के रुप में जाना जाता था. ब्रिटिशकाल में बंगाली समुदाय के लोग थपड़खाना और कांके रोड में बस गए थे. पुरानी रांची को नई रांची बनाने में बंगाली समुदाय का बहुत बड़ा रोल रहा है. शिक्षाविद व डॉक्टर की बात करें तो इसकी अहम भुमिका रही है. इसका साथ ही गुजरात के भी लोग आजादी से पहले रांची में बड़ी संख्या में रहते थे. लेकिन दुर्ग भिलाई में कल कारखाने खुलने की वजह से वे लोग वहां जाकर बस गए. करीब 150 साल पुरानी बात करें तो यहां किसी प्रकार का कोई उद्धोग धंधा नहीं था. सरकारी नौकरी भी सीमित थी. प्रायवेट सेक्टरों में भी नौकरियों के लाले पड़े थे. पूरी की पुरी अर्थव्यवस्था व्यवसाय व कृषि पर निर्भर थी. 

 

सीआईपी पूरे देश में है प्रसिद्ध

शहर में अलग-अलग पेशा के कई स्थाई केंद्र भी य़े. ज्वेलरी, लोहा, हार्डवेयर, किराना, कपड़ा इन सब का केंद्र अपर बाजार में था. भवन निर्माण के लिए चूना का प्रयोग किया जाता था. चूना का भट्टा पहाड़ी मंदिर के पीछे व कोकर में था. चुना व नील का सबसे बड़ा व्यपार दुर्गा मंदिर के पीछे व चर्च रोड में था. 

काली मंदिर व चर्च रोड कांसा व पीतल के बिक्री के लिए प्रसिद्ध था. प्रमुख स्वास्थय केंद्र के लिए सदर अस्पताल को बेहतर माना जाता था. यहां झालिदा व पूरुलिया तक के लोग इलाज करवाने आते थे. मानसिक रोगी के लिए कांके की सीआईपी पूरे देश में प्रसिद्ध थी जो आज भी है. अपर बाजार में नस बैठाने वाले व चांदसी दवाखाना का दुकान होता था. पिठौरिया में स्वर्णकारों और कुर्मी महतों की संख्या ज्यादा थी. 

 

100 साल पहले न पढ़ाई था न हीं स्वास्थय सुविधा

1790 के बाद झारखंड के कई इलाके में इसाई मिशनरियों का प्रवेश हो चुका था. ये मिशनिरी अपने धर्म के प्रचार के साथ-साथ सूदूवर्ती ग्रामीण क्षेत्र में स्वास्थय व शिक्षा को बढ़ावा दे रही थी. रांची में इनकी ओर से कई स्कूल कॉलेज स्थापित किए गए थे. इसी से रांची धीरे धीरे शिक्षा का केंद्र बन गया. आज से 100 साल पहले आदिवासियों के लिए पढ़ाई लिखाई का कोई महत्व नहीं था पर अब इनकी सोच में बदलाव आया है. अब इनकी तीन चार पीढ़ी पढ़ चुकी है. अब वे लोग भी शिक्षा के महत्व को समझने लगे हैं. 2000 को झारखंड गठन के बाद रांची के स्वरुप में तेजी से बदलाव आने लगा. अब तो पड़ोसी जिला रामगढ़, खूंटी तक आबादी का विस्तार होते जा रहा है. शहर की आबादी बढ़ने से यातायात व्यवस्था में भी प्रभाव पड़ा है. अधिकांश शहरो में लोगों को सड़को में जाम के वजह से जूझना पड़ता था. फिलहाल रांची में कई फलाई ओवर बन रहे हैं जिसमें से एक दो बनकर भी तौयार हो गए हैं. इससे रांची शहर में और भी आधुनिक परिवर्तन की उम्मीद है. 


 

 

 

 

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