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रांची: 1857 के सिपाही विद्रोह से पहले कोल विद्रोह के महानायक वीर बुधु भगत ने 1831-32 में अंग्रेजो के खिलाफ लड़ी थी लड़ाई.अंग्रेजी सेना के साथ साथ जमींदारों, जागीरदारों और सूदखोरों के खिलाफ विद्रोह का बिगुल फूंका था.17 फरवरी 1792 को चान्हो के सिलागाईं में जन्म लेने वाले वीर बुधु भगत बचपन से ही जमींदारों, जागीरदारों, सूदखोरों एवं अंग्रेजी सेना की क्रूरता को देखा था उन्होंने देखा था कि जमींदार और जागीरदार किस प्रकार गरीब आदिवासियों के मवेशी और तैयार फसल को उठाकर जबरदस्ती ले जाते थे और गरीब गांव वालों के पास खाने के लिए कुछ भी नहीं बच पाता था उनके घर में भी अनाज के अभाव में कई कई दिनों तक चूल्हा नहीं जल पाता था. लोग भूखे पेट सो जाते थे.शोषण और अत्याचार का यह सिलसिला थम नहीं रहा था.यह सब देख कर कोयल नदी के किनारे बैठकर वीर बुधु भगत घंटों विचार मंथन करते थे.उनके मन में विद्रोह का भाव जन्म ले चुका था.वे अंग्रेजों जमींदारों जागीरदारों और सूदखोरों से मुक्ति के लिए योजना बनाने लगे थे.वे हमेशा अपने पास एक कुल्हाड़ी रखते थे .उन्होंने बचपन से ही तलवार और तीर धनुष चलाने में महारत हासिल किया.वे अच्छे घुड़सवार भी थे.उनमें नेतृत्व क्षमता भी थी.अदम्य साहस और निपुण नेतृत्व क्षमता के कारण उन्होंने आदिवासियों को एकजुट करना शुरू किया.
तमाड़ से शुरू हुआ था कोल विद्रोह, 1 हजार का इनाम की अग्रेजों ने की थी घोषणा
11 दिसंबर 1831 को तमाड़ में अंग्रेजों, जमींदारों और जागीरदारों के विरुद्ध कोल विद्रोह की बिगुल फूंकी गई तो सिलागांईं में कोल विद्रोह का नेतृत्व वीर बुधु भगत ने किया.वीर बुधु भगत तथा उनके तीनों बेटों क्रमशः हलधर, गिरधर और उदयकरण तथा बेटियों क्रमशः रूनिया और झुनिया के नेतृत्व में आदिवासी सेना ने जमींदारों, जागीरदारों सूदखोरों तथा अंग्रेजो के खिलाफ विद्रोह का बिगुल फूंक दिया.आदिवासी सेना उन पर टूट पड़ी.वीर बुधु भगत ने आदिवासियों को गोरिल्ला युद्ध का प्रशिक्षण दिया था.उनकी यह नीति काम आई.वीर बुधु भगत के नेतृत्व में हजारों हथियारबंद आदिवासी योद्धाओं के विद्रोह से अंग्रेजी सरकार और जमींदार जागीरदार कांप उठे और उन्हें पकड़ने हेतु ₹1000 इनाम की घोषणा की गई वीर बुधु भगत छोटानागपुर के प्रथम क्रांतिकारी थे जिसे पकड़ने के लिए इनाम की घोषणा की गई थी.अंग्रेजों की यह नीति एक अनूठा चारा था जिसे मुखबिरो और धनलोलुपों को आकर्षित करने के लिए डाला गया था. संभवतः अंग्रेजों द्वारा इस प्रकार के प्रलोभन की यह पहली घटना थी.परंतु कोई भी अंग्रेजों की चाल में नहीं फंसा.यह वीर बुधु भगत की लोकप्रियता और नेतृत्व कौशल का प्रभाव था. वीर बुधु 300 आदिवासी सेनाओं ने अंग्रेजी टुकड़ी को घेरा लिया था.
भगत की लोकप्रियता इतनी प्रबल थी कि उसके चारों ओर 300 आदिवासी सेनाओं की टुकड़ी ने घेरा डाल दिया था.घेरा डाले हुए आदिवासी सेना के जवान अंग्रेजों की गोलियों से गिरते जा रहे थे और वीर बुधु भगत अंग्रेजी सेना से दूर ओझल होते जा रहे थे.अपने नेता के प्राणों की आहुति देने की स्पर्धा मानव शरीर की सुदृढ़ दीवार सिर्फ और सिर्फ वीर बुधु भगत के लिए ही हो सकता था.वीर बुधु भगत के प्रभाव का नतीजा यह था कि 8 फरवरी 1832 ईस्वी को तत्कालीन संयुक्त आयुक्तों ने अपने पत्र में वीर बुधु भगत के विस्तृत प्रभाव और कुशल नेतृत्व तथा उनकी लोकप्रियता और जनमानस पर उनके प्रभाव का उल्लेख किया था.पत्र के जारी होने के बाद अंग्रेजों को इस बात का आभास हो गया था कि वीर बुधु भगत को पकड़े बिना इस आंदोलन को खत्म करना असंभव है इसलिए अंग्रेज सरकार ने वीर बुधु भगत को जीवित या मृत पकड़ने के लिए अपनी सारी शक्ति झोंक दी.अंग्रेज सरकार ने वीर बुधु भगत को पकड़ने के लिए कैप्टन इम्पे को महत्वपूर्ण जिम्मेवारी सौंपी.लेकिन अपनी शक्ति लगाने के बावजूद असफल रहे.अन्ततः थक हार कर वीर बुधु भगत को पकड़ने के लिए अंग्रेजी सरकार ने बाहर से सैनिक बुलाने का फैसला किया.जनवरी
1832 में छोटानागपुर के बाहर सैन्य बल का आना हुआ शुरू
1832 के अंत तक छोटा नागपुर के बाहर से सैन्य बलों का आना आरंभ हो गया. 25 जनवरी को कैप्टन विलकिंसन के पास 200 बंदूकधारी और 50 घुड़सवारों का एक दल देव के मित्रभान सिंह के नेतृत्व में आया.टेकारी के महाराज मित्रजीत सिंह ने कैप्टन विलकिंसन को 300 बंदूकधारी और 200 घुड़सवार दिए.महाराज मित्रजीत सिंह के भतीजे बिशन सिंह ने 150 बंदूकधारी और 70 घुड़सवार भेजें और खान बहादुर खान ने 300 सैनिक दिए .इसके अलावा अंग्रेजी सरकार ने बंगाल के बैरकपुर से एक रेजीमेंट पैदल सैनिक, दमदम से एक ब्रिगेड घुड़सवार तथा तोपखाने और मिदनापुर से 300 पैदल सैनिक भेजे गए .बनारस और दानापुर से भी अतिरिक्त सैन्य बल लिया गया.13 फरवरी 1832 को अंग्रेजी सेना के कैप्टन इम्पे ने चार कंपनी पैदल सैनिक और घुड़सवारों के साथ सिलागाईं गांव को घेर लिया.वीर बुधु भगत ने अपने छोटे बेटे उदय करण तथा बेटियों क्रमशः रूनिया और झुनिया सहित भाई व भतीजों के साथ आदिवासी सेना के साथ मिलकर अंग्रेजों से कड़ा संघर्ष किया.लेकिन तीर और तलवार बंदूकों के आगे नहीं टिक पाई.भीषण युद्ध में उदयकरण तथा रूनिया और झुनिया शहीद हो गए.लड़ाई में सैकड़ों आदिवासी योद्धा वीरगति को प्राप्त हो गए.वीर बुधु भगत को भी अंग्रेजों की सेना ने घेर लिया और आत्मसमर्पण करने की चेतावनी दी.
जीते जी अंग्रेजों की गुलामी स्वीकार नहीं की
वीर बुधु भगत को मरना पसंद था लेकिन अंग्रेजों की गुलामी नहीं.उन्होंने 13 फरवरी 1832 को भीषण युद्ध के दौरान ही अपनी तलवार से अपना ही सिर काटकर धड़ से अलग कर लिया और अभूतपूर्व शहादत का मिसाल कायम किया .इसके पूर्व लोहरदगा के निकट टिको गांव में अंग्रेजों से लड़ते हुए दो फरवरी 1832 ईश्वी को वीर बुधु भगत के पुत्र हलधर और गिरधर भी शहीद हो गए थे.वीर बुधु भगत की वीरता की कहानी आज भी लोकगीतों और लोक कथाओं में मिलती है.वीर बुधु भगत ने अंग्रेजों की दमनकारी नीति के खिलाफ ऐसी लड़ाई लड़ी जिसे इतिहास के स्वर्णअक्षरों में आज भी याद किया जाता है.