रांची: प्रकृति का महापर्व करमा आदिवासियों के प्रमुख त्योहारों में से एक है. भादो मास की एकादशी को झारखंड, छत्तीसगढ़ सहित देश भर में हर्षोल्लास के साथ यह पर्व मनाया जाता है. इस पर्व की एक अनोखी कहानी है जो प्रकृति से जुड़ी है.
करमा पर्व की कहानी सात भाई और सात गोतनी पर आधारित है. सात भाइयों में सबसे छोटा ननका और उसकी पत्नी ननकी धन दौलत से काफी धनवान थे, लेकिन शादी की लंबी अवधि बीत जाने के बाद भी संतान की प्राप्ति नही होने से दोनों काफी चिंतित रहते थे, एक दिन ननका को स्वप्नमें गांवदेवती प्रकट होती है. जिन्होंने उन्हें करमा की पूजा करने की सलाह देती है. जिसके पश्चात दोनों पति पत्नी भादो एकादशी तृतीय शुक्ल पक्ष के दिन सात समुंदर पार से कर्मा की डाली को लाकर पूरी विधि विधान से पूजा अर्चना करते हैं और संतान प्राप्ति की कामना करते हैं. देखते ही देखते 1 साल के भीतर ही उन्हें जुड़वा संतान की प्राप्ति होती है. कर्म और धर्म करने के अनुरूप संतान की प्राप्ति होने को लेकर दोनों पति-पत्नी ने बड़ा पुत्र का नाम करमा और छोटा पुत्र का नाम धर्मा रख देते हैं, दोनों भाई बहुत मेहनती और दयावान थे. वहीं, करमा की पत्नी अधर्मी और दूसरों को परेशान करने वाली विचार की थी. यहां तक कि धरती मां का भी अपमान कर देती थी जिससे करमा बहुत दुखी हो गया और वह एक दिन घर छोड़कर चला गया. करमा के जाते ही पूरे इलाके के कर्मों-किस्मत उसके साथ चला गया. पूरा इलाके में अकाल पड़ गया. सभी जीव-जंतु परेशान रहने लगे. इसको देख धर्मा अपने भाई करमा को ढूंढने निकल गया.
जब धर्मा अपने भाई करमा को ढूंढ कर गांव वापस आने लगा तो सभी जीव-जंतु अपनी पीड़ा बताने लगे. तभी करमा ने सभी को अपना कर्म बताया और दूसरों को परेशान नहीं करने की सलाह दी. घर लौटने के बाद करमा ने डाल को पोखर में गाड़कर पूजा की. उसके बाद पूरे इलाके में खुशहाली लौटाई और सभी खुशी-खुशी आनंद से रहने लगे. इसी को याद कर करमा पूजा मनाया जाने लगा. इससे यह स्पष्ट होता है कि कर्म के अनुरूप ही फल मिलता है.
करमा पर्व की कई विशेषताएं हैं. इसमें आदिवासियों की सभ्यता, संस्कृति और इनकी परंपरा देखने को मिलती है. इस पर्व में खानपान, गीत-संगीत का भी खास महत्व होता है. भादो माह के आगमन के साथ ही लोगों के दिलो-दिमाग में करमा गीत का परवान चढ़ने लगता है. करमा पूजा भाई-बहनों के अटूट रिश्ते को दर्शाती है. बहनें अपने भाई के उज्ज्वल भविष्य के लिए पूजा करती हैं और करम वृक्ष की तरह अपने भाई की दीर्घायु और परिवार में खुशहाल जीवन के लिए कामना करती है. आदिवासी समाज के लोग इस पर्व को इतना महत्वपूर्ण मानते हैं कि अपने जीवन की सभी शुभ काम की शुरुआत इसी दिन से करते हैं.
तीज बीतने के बाद से ही आदिवासी करमा पर्व की तैयारी में जुट जाते है. युवतियां गांव-मोहल्ला घूम-घूमकर चावल, गेहूं, मक्का जैसे 9 तरह के अनाज इकट्ठा करती हैं और उसे टोकरी में डालकर गांव के अखड़ा में रखती हैं. भादो मास के एकादशी के दिन शाम का समय युवक-युवतियां इकट्ठा होकर करमा डाल को काटकर नाचते-गाते अखड़ा लाते हैं और इसके बाद विधिवत पूजा अर्चना की जाती है. जिसमें व्रत रखी युवतियां और नव विवाहित महिलाएं, बुजुर्ग समेत गांव-मोहल्ले के सभी लोग शामिल होते हैं और पूजा संपन्न होने के बाद नाचते-गाते हैं. खुशियां मनाते हैं.
दूसरे दिन लोग अपने घर में धरती मां की पूजा करते हैं और अच्छी फसल होने के साथ खुशहाल जीवन यापन और घर धन से भरा रहने की कामना करते हैं. इसी दिन युवक-युवतियां करमा की डाल को लेकर नाचते गाते गांव के सभी घरों में घूमते हैं और एक दूसरे को जावा फूल के साथ पर्व की शुभकामनाएं देते हैं. इसके बाद गांव की खुशहाली और समाज को दुख-दर्द और कष्ट से मुक्ति दिलाने की कामना के साथ करम देव को नदी या तालाब में बहा दिया जाता है.
आदिवासियों को प्रकृति का पूजक कहा जाता है जो इनके त्योहारों में देखने को मिलती है. करमा पर्व आपसी भाईचारा और साथ में मिल जुलकर रहने का संदेश देता. साथ ही पर्यावरण संरक्षण का भी संदेश देता है. संसार के जीव जंतुओं से ही मनुष्य का जीवन चल रहा है. यही कारण है कि मनुष्य और प्रकृति का अटूट संबंध रहा है. इसलिए करमा पर्व को प्रकृति का महापर्व कहा जाता है.