न्यूज11 भारत
रांची: कहां जाता है कि होली में दिल मिल जाते है, दुश्मन भी गले लग जाते है. रंगों का त्योहार होली लोगों को जोड़ती है. लोग गिले शिकवे भुलाकर एक-दूसरे से गले मिलकर और अबीर-गुलाल लाकर होली की खुशियां मनाते हैं. वहीं बोकारो जिले के एक गांव में लोग रंग, अबीर को हाथ तक नहीं लगाते है. इस गांव में होली नहीं बनाई जाती है. जी हां, झारखंड के बोकारो जिले के कसमार प्रखंड में एक ऐसा गांव है जहां होली नहीं खेली जाती है. कसमार प्रखंड के दुर्गापुर गांव जहां लोग सदियों से होली नहीं खेलते हैं. इस गांव में तकरीबन 300 वर्षों से यही परंपरा चली आ रही है. इस दिन गांव के लोग रंग-अबीर को छूने से भी परहेज करते हैं. जिला मुख्यालय से 35 और कसमार प्रखंड मुख्यालय से करीब 10 किमी दूर ऐतिहासिक दुर्गा पहाड़ी की तलहटी में बसे दुर्गापुर गांव में परंपरा का निर्वाह अभी भी हो रहा है.
जाने गांव को क्यों नहीं बनाई जाती है होली
दुर्गापुर गाव में करीब 8 हजार की आबादी है. इस गांव में कुल 12 टोले हैं. इस पहाड़ी को ‘बडराव बाबा’ के नाम से भी जाना जाता है. इसके प्रति ग्रामीणों में काफी धार्मिक आस्था है. होली नहीं मनाने के पीछे ग्रामीणों में कई तरह की मान्यताएं हैं. ग्रामीणों के अनुसार करीब 300 साल पहले यहां राजा दुर्गा प्रसाद देव का शासन था. पदमा राजा के साथ हुई लड़ाई में राजा दुर्गा प्रसाद देव होली के दिन सपरिवार मारे गए थे. अपने राजा की मौत के गम में ग्रामीणों ने होली नहीं मनाने का प्रण लिया. तब से इस गांव में होली नहीं मनाने की परंपरा चली आ रही है. वहीं, कुछ ग्रामीणों का यह भी मानना है कि बडराव बाबा को रंग बिल्कुल पसंद नहीं है. उनकी पूजा में सफेद फूल ही चढ़ाए जाते हैं. उन्हें बलि भी सफेद रंग के बकरे या मुर्गे की ही चढ़ाई जाती है. दुर्गापुर के पूर्व मुखिया अमरलाल महतो के अनुसार, बडराव बाबा के प्रति आस्था के कारण ही लोग होली नहीं मनाते हैं.
ऐसी मान्यता है कि यदि होली के दिन गांव का कोई व्यक्ति रंग-अबीर छू भी ले तो गांव में भयानक महामारी फैल जाएगी और अप्रिय घटनाएं घटित होने लगेंगी. ग्रामीण बताते हैं कि कुछ युवाओं ने इसे अंधविश्वास मानते हुए एक बार होली खेली थी. इसके बाद उस वर्ष गांव में महामारी फैल गई और अप्रिय घटनाएं घटने लगीं. तब बडराव बाबा की पूजा के बाद स्थित सामान्य हुई थी. उसके बाद होली नहीं खेलने की मान्यता को और बल मिल गया. ग्रामीण यह भी बताते हैं कि काफी समय पहले मल्हारों की एक टोली गांव में आकर ठहरी थी. उस वर्ष मल्हारों ने गांव की परंपरा के विपरीत जमकर होली खेली थी. उसके बाद गांव में तरह-तरह की बीमारी और महामारी फैल गई. पांच मल्हारों की मौत भी हो गई थी. बडराव बाबा की पूजा के बाद सब सामान्य हो पाया था, दूसरे गांवों में मनाते हैं होली
होली नहीं मनाने की अलग-अलग मान्यताएं
गांव की सीमा से बाहर जाकर होली का लेते है आनंद
केवल गांव की सीमा तक ही होली नहीं मनाने की परंपरा है. यही वजह है कि कुछ लोग होली के दिन आसपास के दूसरे गांवों में जाकर होली मनाते हैं और रंग खेलते हैं. कोई ससुराल, तो कोई मामा के घर, या फिर किसी अन्य रिश्तेदार के यहां जाकर होली का आनंद उठाते हैं. दूसरे शहरों या प्रदेशों में रहकर रोजी-रोजगार चलाने वाले गांव के लोग वहां जमकर होली का आनंद उठाते हैं. पर, जिस समय गांव में रहते हैं, रंग छूते तक नहीं. केवल दुर्गापुर पंचायत ही नहीं बल्कि यह पहाड़ी पूरे इलाके की आस्था का केंद्र है. इसके नाम पर पूजा होती है. मन्नत पूरी होने पर बकरा और मुर्गा चढ़ाया जाता है. सभी टोले प्रखंड की पहचान के रूप में स्थापित दुर्गा पहाड़ी के चारों ओर बसे हैं. गांव में अनिष्ट की आशंका से बीते 300 साल से लोग होली नहीं खेलते.