प्रशांत शर्मा/न्यूज़11 भारत
हजारीबाग/डेस्क: शहर से पांच किलोमीटर की दूरी पर कटकमदाग प्रखंड के खपरियावां पंचायत स्थित बनहा में कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर लगाने वाले ऐतिहासिक नृसिंह मेले को लेकर मंदिर कमेटी ने सारी तैयारियां कर ली हैं. शुक्रवार सुबह भगवान नृसिंह की पूजा करने के लिए हजारों भक्तों की भीड़ उमड़ पड़ी मेले में पहुंचने वाले सभी श्रद्धालु गेंदा के फूल की माला व गन्ना खरीदते देखे गए. जिसे यहां का विशेष प्रसाद माना जाता हैं. वहीं इस मेले में हर साल उमड़ने वाली भारी भीड़ को देखते हुए सुरक्षा के भी व्यापक इंतजाम किये जाते हैं. चार सौ साल से अधिक पुराना है यह मंदिर प्राचीन धरोहर लगभग चार सौ वर्ष के इतिहास को संजोए हुए हैं. मुगलकाल से लेकर ब्रिटिश शासन और वर्तमान लोकतंत्र का साक्षी भी रहा हैं. यहां भगवान विष्णु के अवतार नृसिंह की पांच फीट की प्राचीन प्रतिमा है, जो काले रंग के ग्रेफाइट पत्थर की बनी हैं. ऐसी मान्यता है कि यहां गर्भगृह में भगवान विष्णु के साथ शिव साक्षात विराजमान हैं. यहां स्थापित शिवलिंग जमीन से तीन फीट नीचे हैं. गर्भ गृह में शिव के साथ विष्णु भगवान के विराजमान रहने का का अद्भुत संयोग हैं. जो वैष्णव और शिव भक्तों को अपनी ओर आकर्षित करता हैं.
इसके अलावा भगवान सूर्य देव, नारद, शिव पार्वती और नवग्रह के प्रतिमा दर्शनीय हैं. गर्भ ग्रह के बाहर हनुमान जी की प्रतिमा हैं. यहां सालों पर दर्शन पूजन करने श्रद्धालु आते हैं. गुरुवार और पूर्णिमा के दिन पूजा का अपना एक अलग महत्व हैं. कार्तिक और माघ महीने में भक्तों की भीड़ यहां बढ़ जाती हैं. यहां मुंडन, जनेउ, शादी विवाह व अन्य धार्मिक का आयोजन किए जाते हैं. शहर एवं आसपास लोक नया वाहन खरीदने पर यहां पूजा करने पहुंचते हैं. मंदिर से कुछ दूरी पर मां सिद्धेश्वरी का मंदिर है, जिसे नकटी महामाया मंदिर भी कहते हैं. यह सिद्ध पीठ हैं. मंदिर परिसर में भगवान विष्णु के दशा अवतार के मंदिर हैं. जिसमें मत्स्य, कुर्म, वाराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण बुद्ध और कल्कि अवतार के मंदिर शामिल हैं. इसके अलावा यहां काली मंदिर और लक्ष्मी नारायण का भी मंदिर हैं. दामोदार मिश्र ने की थी मंदिर की स्थापना, श्री नृसिंह मंदिर का इतिहास काफी पुराना हैं. इसकी स्थापना 1632 ईस्वी में पंडित दामोदर मिश्र ने की थी, जो रामायण के रचनाकार संत तुलसीदास के समकालीन थे. वह संस्कृत और ज्योतिष के विद्वान के होने के साथ-साथ तांत्रिक भी थे. संस्कृत में उन्होंने कई रचनाए लिखी हैं. वह दुर्लभ पांडुलिपि आज देखरेख के अभाव में खत्म होने के कगार पर हैं.
उनके वंशजों का कहना है कि वह औरंगाबाद सौरीश कुटुंबा के रहने वाले थे. उन्होंने बनारस मे शिक्षा दीक्षा लेने के बाद गंगा नदी के किनारे सिद्धेश्वरी घाट पर भगवान विष्णु के उग्र रूप नृसिंह की आराधना कर सिद्धि प्राप्त की थी. उसके बाद वह अपनी माता लवंगा के साथ हजारीबाग खपरियांवा पहुंचे. यहां उन्हें स्वप्न देखा कि भगवान विष्णु उनसे कह रहे है कि वह नेपाल के भूसुंडी पहाड़ी में हैं. यहां उनकी प्रतिमा स्थापित हैं. जिसे स्वप्न में लाने का उन्हें आदेश प्राप्त हुआ. इसके बाद वह अपने सहयोगियों के साथ पदयात्रा कर नेपाल पहुंचे, जहां खुदाई में भगवान नृसिंह के साथ-साथ मंदिर परिसर में स्थापित अन्य प्रतिमाएं निकली. उसके बाद सभी प्रतिमा को लेकर वे खपरियांवा पहुंचे.