रांची: आदिवासी सरना विकास समिति के अध्यक्ष मेघा उरांव ने कहा कि मेघा उरांव ने कहा कि वर्तमान समय में अदिवासियों की पारंपरिक पाड़हा व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गया है. गिरावट आ गया है. इसका मुख्य कारण है इस व्यवस्था में बाहरी लोगों का प्रवेश और राजनीतिक करण से भी छिन्न-भिन्न हो गया है. आज पढ़ लिख कर दूसरे का नकल कर रहे हैं. शहरीकरण की ओर भाग रहे हैं अपनी बोली, भाषा, गीत गोविंद सभी चीजों को भूल रहे हैं अर्थात जनजाति परंपराए विलुप्त होते जा रहा है. यह बातें उरांव ने केंद्रीय विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित विपुल्त होती जनजातियां विषय पर आयोजित व्याख्यान में बोल रहे थे.
उन्होंने कहा कि इसका एक कारण यह भी है जो बड़े पैमाने पर जनजातियों का धर्मांतरण हुआ है. जो अब भी जारी है. जनजाति समाज का पूजा पाठ में भी विकृति पैदा कर दिया जा रहा है. उन्होंने कहा कि आज विकास के नाम पर प्राकृति का दोहन, शोषण ,नदी नाला पेड़ पौधा जंगल इत्यादि को काटना उजाड़ना, अतिक्रमण हो रहा है यह प्राकृति विषमताएं हैं. इसके चलते प्राकृति भी अपना रास्ता बदल रहा है. जिसके कारण आपदा और बिपता का सामना करना पड़ रहा है.
अगर हमें धरती में जिंदा रहना है प्रकृति का नेचर और जनजातियों का जीवन शैली और पेड़, पौधा, और पर्यावरण का रक्षा, सुरक्षा करना ही होगा.
उन्होंने कहा कि भारत में लगभग 700 जनजाति समाज निवास करते हैं. सभी जनजातियों की अपनी-अपनी अलग-अलग परंपराएं, रीति ,रिवाज और पूजा पद्धति के अनुसार मानते हैं. जनजाति समाज जल, जंगल और जमीन पर अटूट विश्वास है, प्राकृति के ऊपर आस्था और विश्वास रखते हैं. उन्होंने कहा कि आज से हम सैकड़ों हजारों साल की पीछे की बात करें तो आदिवासियों का आवास और निवास जंगलों में ही रहा है. वन देवी देवताओं का पूजा करना उबड़ खाबड़ झाड़ को साफ कर का खेती योग्य जमीन बनाना जंगल का फल फूल का सेवन करना लकड़ी, दातुन, पत्ता इत्यादि जो भी आदिवासियों का एक तरह का जेविका जीने खाने का एक सहारा रहा है. पूजा पाठ से लेकर कोई भी काम दाहिने से शुरुआत करते हैं. जो भी अपने बाल बच्चों का नामकरण किया जाता रहा है. अगर सोमवार को जन्म लिया लड़का है तो सोमरा लड़की है तो सुमरी इसी तरह नवग्रह का नामकरण होता रहा है. गोत्र में कुजुर( लंरग), tigga (बंदर ), लकड़ा (बाघ) पंछी इत्यादि का गोत्र रखा है. लेकिन इस गोत्र को भी हमारे पूर्वज ओपन नहीं किया केवल शादी विवाह के समय गोत्र का पूछा पूछी होता रहा है. मेघा उरांव ने कहा है कि जनजाति समाज का अस्तित्व, अस्मिता और पहचान जो गांव के अखड़ा ,धूमकुडिया, सरना, मसना, हड गड़ी, रुढि और प्रथा,पहान, पुजार महतो, पाडहा, बेल देवान इत्यादि सामाजिक व्यवस्था के तहत स्थापित किए जाते है चुने जाते हैं. जनजाति समाज मुख्य रूप से सखुवा सरई और करम पेड़ की पूजा करते हैं.