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झारखंड


क्या है झारखंड में BJP की हार की वजह? ये है BJP की हार का वजह

क्या है झारखंड में BJP की हार की वजह? ये है BJP की हार का वजह

न्यूज़11 भारत

रांची/डेस्क: झारखण्ड विधानसभा चुनाव के नतीजे आ गए. नतीजों के अनुसार यह साफ़ है की एक बार फिर से हेमंत सोरेन के नेतृत्व में सरकार बनने जा रही है. इस चुनाव में I.N.D.I.A गठबंधन  81 सीटों में कुल 56 सीटों पर विजय हुई है. वहीँ NDA कुल 24 सीटों पर सिमट कर रह गई. भारतीय जनता पार्टी ने अपनी पूरी ताकत लगा दी थी इस चुनाव में लेकिन क्यों चुनाव नहीं जीत पाई, इसके पीछा का कारण क्या है, भाजपा की हार की वजह क्या है? इस खबर में हम इन सारे सवालों के जवाब देंगे. 






बिना सीएम चेहरे के भाजपा लड़ी थी चुनाव

झारखण्ड में मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन I.N.D.I.A गठबंधन  का एक बड़ा चहरा है. इनके सामने भाजपा के पास बाबूलाल मरांडी और अर्जुन मुंडा बताए जाते है. आपको बता दे कि अर्जुन मुंडा ने अपनी राजनीति की शुरुआत झारखण्ड मुक्ति मोर्चा से ही की थी. लेकिन वह बाद ,इ भाजपा में आ गए थे. वहीं अगर बात करें बाबूलाल मरांडी की वह वर्तमान में भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष है. वह झारखण्ड के पहले मुख्यमंत्री रह चुके है. उन्होंने साल 2006 में भाजपा से अलग होकर अपनी नई पार्टी 'झारखण्ड विकास मोर्चा' बनाई थी. लेकिन उन्होंने फरवरी 2020 में अपनी पार्टी झारखण्ड विकास मोर्चा का भाजपा में विलय कर दिया था. साल 2014 में राज्य को एक गैर आदिवासी मुख्यमंत्री मिला था. उस समय रघुवर दास के नेतृत्व में सरकार बनी और राज्य में पहली ऐसी सरकार बनी, जिसने 5 साल का कार्यकाल पूरा किया. लेकिन अब वह भी सक्रिय राजनीति में नहीं है, रघुवर दास अभी वर्तमान में ओडिशा के राज्यपाल है. 

 

भाजपा की हार के पीछे राजनीतिक जानकारों का यह कहना था कि भाजपा ने मुख्यमंत्री का चहरा दिए बिना ही चुनाव लड़ा था. वहीं I.N.D.I.A गठबंधन ने पूरी मजबूती से हेमंत सोरेन के चहरे पर चुनाव लड़ा था. दूसरी तरफ भाजपा के स्टेट यूनिट के बजाय  केंद्रीय नेतृत्व ने इस चुनाव को अपने हाथ में लिया था. ऐसे में केंद्रीय नेतृत्व ने मजबूती से चुनाव लड़ा लेकिन नतीजे उनके पक्ष में नहीं आए. हालांकि भाजपा के लिए यह सामान्य धारणा है कि वह एक कैडर आधारित पार्टी है, भाजपा ने पिछले कई चुनावों में बिना चचरे के चुनाव लड़ा था और जीता भी था. बिना चहरे के चुनाव लड़ना भाजपा की एक सामान्य रणनीति है. पार्टी ने राजस्थान, छत्तीसगढ़ में भी बिना चारे के चुनाव लड़ा था उर वह जीती भी थी. 

 

नहीं चला बांग्लादेशी घुसपैठ का मुद्दा

इस चुनाव के लिए भारतीय जनता पार्टी ने केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान को प्रभारी और असं के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा को सह-प्रभारी चुना था. इसके बाद हिमंता बिस्वा सरमा ने झारखंड बांग्लादेशी घुसपैठ का मुद्दा उठाया था. इसके बाद हर चुनावी सभा में भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने भी इस मुद्दे को हमेशा उठाया. अमित शाह ने 20 सितम्बर को एक चुनावी सभा के दौरान जनता से कहा था कि एक बार फिर से झारखंड की सरकार बदल दीजिए, वह वादा करते है कि रोहिंग्या और बांग्लादेशी घुसपैठियों को चुन-चुनकर झारखंड के बाहर भेजने का काम भारतीय जनता पार्टी करेगी. रोहिंग्या और बांग्लादेशी घुसपैठियों ने हमारी सभ्यता को नष्ट कर दिया है और संपत्ति को हड़प रहे हैं. अमित शाह के इस  टिप्पणी पर बांग्लादेश ने भी कड़ी आपत्ति जताई थी. इसपर राजनीतिक जानकारों का कहना है कि भाजपा शुरू से ही गलत लाइन में चली गई. लोकसभा चुनाव के बाद भाजपा केवल अवैध घुसपैठ और संथाल परगना में डेमोग्राफी में बदलाव का मुद्दा उठा रही थी. लेकिन चुनाव नतीजे उसके पक्ष में नहीं रहा. मुस्लिमों और आदिवासियों का वोट बैंक झामुमो के लिए लिए मजबूत वोट बैंक बन चुका. बांग्लादेशी घुसपैठ को अद्दिवासियों का एक बड़ा तबका गैर-जरूरी मुद्दा मानता है. आपको बता दें की झारखंड राज्य की कोई भी सीमा सीधे बांग्लादेश से नहीं मिलती है. बताया जाता कि संथाल परगना के छह जिलों के वोटरों के हाथों में झारखंड राज्य की सत्ता की चाबी होती है. इस क्षेत्र में जो भी बढ़त बनता है, उसे सरकार बनाने में मजबूती होती है. इस क्षेरा को भाजपा ने जीतने की पूरी कोशिश की थी. इस क्षेत्र ने राज्य को एक ही परिवार से दो मुख्यमंत्री दिए है, वह है शिबू सोरेन और उनके पुत्र हेमंत सोरेन. 

 

 

नहीं मिला आदिवासियों का समर्थन

झारखंड में विधानसभा की 81 और लोकसभा की 14 सीटें हैं. राज्य में आदिवासियों की आबादी लगभग 27 प्रतिशत है, जिसके चलते विधानसभा में 28 और लोकसभा में 5 सीटें आदिवासियों के लिए आरक्षित हैं. 2019 के चुनाव में जेएमएम के गठबंधन ने 26 सीटों पर जीत हासिल की थी. 2024 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने राज्य में 8 सीटें जीतीं, लेकिन आदिवासियों के लिए आरक्षित सभी 5 सीटों पर उसे हार का सामना करना पड़ा. इस बार जेएमएम ने आरक्षित 28 सीटों में से अधिकांश पर जीत या बढ़त हासिल की है. राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि हेमंत सोरेन की सरकार आने से आदिवासी राजनीति में महत्वपूर्ण बदलाव आया है. आदिवासियों ने लगातार हेमंत पर भरोसा जताया है, जो उन्हें सर्वमान्य आदिवासी नेता मानते हैं. 

 

2024 में हेमंत सोरेन को कथित भूमि घोटाले के आरोप में जेल जाना पड़ा था. जेल जाने से पहले उन्होंने इस्तीफा दिया, जिसके बाद चंपई सोरेन मुख्यमंत्री बने. हालांकि, चंपई सोरेन की पारी लंबे समय तक नहीं चली, और 3 जुलाई 2024 को हेमंत सोरेन के जेल से बाहर आने के बाद चंपई ने इस्तीफा दे दिया. चंपई को 'कोल्हान के टाइगर' के नाम से जाना जाता है और वे संथाल आदिवासी नेता हैं, जो राज्य के प्रमुख आदिवासी नेताओं में से एक माने जाते हैं.कोल्हान क्षेत्र में झारखंड के 3 जिले और 14 विधानसभा सीटें शामिल हैं. 2019 के विधानसभा चुनावों में बीजेपी ने इस क्षेत्र से क्लीन स्वीप किया था, और चंपई सोरेन से उन्हें बड़ी उम्मीदें थीं. इस बार चंपई ने अपनी सीट सरायकेला से जीत हासिल की है. 

सरायकेला के पास जुगसलाई सीट से पूर्णिमा साहू (रघुवर दास की बहू) और जमशेदपुर पश्चिम से जेडीयू के सरयू राय ने चुनाव जीते हैं. एनडीए को 3 सीटें मिलीं, जबकि 11 सीटें 'इंडिया' गठबंधन के खाते में गई हैं. यदि कोल्हान में इस चुनाव के नतीजों की तुलना 2009 के चुनाव से करें, तो बीजेपी मजबूत दिखाई देती है. तब बीजेपी ने 6 सीटें जीती थीं, जबकि जेएमएम ने 4 सीटें जीती थीं. चंपई सोरेन के आने से बीजेपी को लाभ तो हुआ है, लेकिन वह अपेक्षित स्तर पर नहीं है. चंपई अपनी सीट जीत गए, लेकिन उनके कद के हिसाब से बीजेपी को जितनी सीटें मिलनी चाहिए थीं, उतनी नहीं मिलीं.

 

 

भ्रष्टाचार और परिवारवाद का मुद्दा बेअसर

भाजपा ने हेमंत सोरेन के जेल जाने के बाद राज्य में भ्रष्टाचार का मुद्दा जोर-शोर से उठाया. जेल के बाद, हेमंत की पत्नी कल्पना सोरेन राजनीति में सक्रिय हुईं और लोकसभा चुनाव में जेएमएम के लिए प्रचार किया. कल्पना की रैलियों में भारी भीड़ जुटती थी. भाजपा ने उनकी सक्रियता को परिवारवाद से जोड़ा और भ्रष्टाचार के साथ-साथ परिवारवाद को अपने मुद्दों में शामिल किया.

हालांकि, यह रणनीति बेअसर साबित हुई, क्योंकि कल्पना सोरेन गांडेय विधानसभा क्षेत्र से चुनाव जीत गईं. राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि पहले कल्पना की पहचान हेमंत सोरेन की पत्नी के रूप में थी, लेकिन अब वे पार्टी की एक महत्वपूर्ण नेता बन गई हैं. उन्होंने खुद को एक जननेता के रूप में स्थापित किया है. हेमंत और कल्पना का संयुक्त प्रचार निश्चित रूप से जेएमएम को लाभ पहुंचाने वाला साबित हुआ. भाजपा ने परिवारवाद का मुद्दा उठाया, लेकिन इस जोड़ी की लोकप्रियता को मात नहीं दे पाई.हेमंत सोरेन के कथित भ्रष्टाचार को लेकर सवाल यह है कि क्या यह वास्तव में बड़ा मुद्दा था. भ्रष्टाचार पर वोट देना अब लोगों के लिए सामान्य हो चुका है, क्योंकि लगभग हर पार्टी के नेताओं पर आरोप लगते हैं. ज़मानत मिलने के बाद, हेमंत सोरेन ने इसे सहानुभूति के रूप में भुनाया, जिससे उनके वोट बैंक ने उनकी अपील को स्वीकार कर लिया.इस चुनाव में भाजपा को कुछ हासिल हुआ है या नहीं, यह कहना मुश्किल है, क्योंकि उन्होंने सिर्फ़ नुकसान ही उठाया है.

 

ख़राब रहा सहयोगी दलों का प्रदर्शन

जेएमएम ने कांग्रेस, राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई (एम-एल)) के साथ गठबंधन किया है. इस गठबंधन में कांग्रेस 30 सीटों, आरजेडी 7 सीटों और सीपीआई (एम-एल) 4 सीटों पर चुनाव लड़ रही थी. हालांकि, कुछ सीटों पर जैसे छतरपुर और विश्रामपुर, कांग्रेस और आरजेडी एक-दूसरे के खिलाफ चुनाव में उतरे.

अब तक, कांग्रेस ने 9 सीटें, सीपीआई (एम-एल) ने 2 सीटें और आरजेडी ने 1 सीट जीती है. इसके अलावा, गठबंधन के ये साथी 10 सीटों पर आगे चल रहे हैं.

 

वहीं, बीजेपी के साथ ऑल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन (आजसू) 10 सीटों, जेडीयू 2 सीटों और लोक जनशक्ति पार्टी (राम विलास) 1 सीट पर चुनाव लड़ रही थी. जेडीयू और लोक जनशक्ति पार्टी (राम विलास) ने 1-1 सीट जीती है, जबकि आजसू एक सीट पर आगे है.

दोनों गठबंधनों की तुलना करें, तो जेएमएम का गठबंधन बीजेपी के सहयोगियों से स्पष्ट रूप से आगे दिख रहा है. इसके अलावा, बीजेपी के गठबंधन में शामिल दूसरे दलों के नेताओं ने भी अपेक्षाकृत अच्छा प्रदर्शन नहीं किया. बीजेपी ने कम से कम आठ ऐसे नेताओं को टिकट दिया था, जो अन्य दलों से आए थे, जिनमें से पांच हार गए. हारने वालों में हेमंत सोरेन की भाभी सीता सोरेन और झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा की पत्नी गीता कोड़ा शामिल हैं. सहयोगी पार्टी आजसू ने कांग्रेस से आने वाले दो नेताओं को टिकट दिया था, लेकिन वे भी हार गए.

 

 
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