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रांची/डेस्क: हर साल 2 जून की तारीख आती है तो सोशल मीडिया मीम्स और चुटकुलों से भर जाता हैं. "आज तो 2 जून की रोटी जरुर खा लेना दोस्त!" लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि ये कहावत आखिर कहां से आई और इसका तारीख से कोई लेना-देना भी है या नहीं.
सिर्फ कहावत नहीं
'दो जून की रोटी" कोई कैलेंडर की तारीख नहीं बल्कि उन करोड़ों लोगों की जिंदगी का कड़वा सच है, जिन्हें दिन में दो वक्त का खाना भी नसीब नहीं होता. इस कहावत की जड़े अवधी भाषा से आती है, जहां जून का अर्थ समय होता है यानी सुबह और शाम की रोटी. भारतीय साहित्य के दिग्गजों प्रेमचंद और जयशंकर प्रसाद ने भी दो जून की रोटी के संघर्ष को अपनी कहानियों में गहराई से उकेरा हैं. यह मुहावरा समाज में आर्थिक असमानता और गरीबी की हकीकत को रेखांकित करता हैं.
2 जून को हर साल ट्विटर, इंस्टाग्राम और व्हाट्सएप पर मीम्स की बाढ़ आ जाती हैं. एक यूजर ने लिखा "दो जून की रोटी खा ली, अब जिंदगी पूरी समझो!". दूसरे ने कहा "काश दो जून की रोटी पर सरकार की कृपा हो जाए ताकि कोई भूखा न सोए." लेकिन इन चुटकुलों के बीच हकीकत आज भी उतनी भी कड़वी हैं.